क़द्र ओरैज़ी
ग़ज़ल 16
अशआर 11
आती है नज़र उस में इख़्लास की हर सूरत
आईना है आईना इंसान मोहब्बत का
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ख़ामोश इस तरह से न जल कर धुआँ उठा
ऐ शम्अ' कुछ तो बोल कभी तो ज़बाँ उठा
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तोड़ा नहीं जा सकता पैमान मोहब्बत का
नुक़सान ख़ुद अपना है नुक़सान मोहब्बत का
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नाला-ए-बे-सौत ख़ुद बनने लगा मोहर-ए-सुकूत
बे-ज़बानी को हमारी अब ज़बाँ से क्या ग़रज़
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लोग तुझ को हक़ीर समझेंगे
हद से ज़ाइद भी इंकिसार न कर
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