अनवर कैफ़ी
ग़ज़ल 9
अशआर 8
जो कर रहे थे ज़माने से गुमरही का सफ़र
उन्हीं के नाम किया हक़ ने बंदगी का सफ़र
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मिरी क़िस्मत की कश्ती बहर-ए-ग़म में डूब सकती थी
तिरी तक़दीर से शायद मिरी तक़दीर उभरी है
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ये तो हो सकता है कि दोनों की मंज़िल एक हो
फिर भी उस के हम-सफ़र होने की फ़रमाइश न कर
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ये दौर मोहब्बत का लहू चाट रहा है
इंसान का इंसान गला काट रहा है
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रह-ए-हयात में शायद ही वो मक़ाम आए
कि नग़्मा-हा-ए-जुनूँ पर सुकूत तारी हो
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