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अशअर नजमी

1960 | मुंबई, भारत

शायर और अदीब, प्रसिद्ध साहित्यिक पत्रिका ‘इस्बात’ के सम्पादक

शायर और अदीब, प्रसिद्ध साहित्यिक पत्रिका ‘इस्बात’ के सम्पादक

अशअर नजमी के शेर

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अंधेरे में तजस्सुस का तक़ाज़ा छोड़ जाना है

किसी दिन ख़ामुशी में ख़ुद को तन्हा छोड़ जाना है

रफ़्ता रफ़्ता ख़त्म क़िस्सा हो गया होना ही था

वो भी आख़िर मेरे जैसा हो गया होना ही था

सौंपोगे अपने बा'द विरासत में क्या मुझे

बच्चे का ये सवाल है गूँगे समाज से

जाने कब कोई कर मिरी तकमील कर जाए

इसी उम्मीद पे ख़ुद को अधूरा छोड़ जाना है

ज़हर में डूबी हुई परछाइयों का रक़्स है

ख़ुद से वाबस्ता यहाँ मैं भी नहीं तू भी नहीं

वो जिन की हिजरतों के आज भी कुछ दाग़ रौशन हैं

उन्ही बिछड़े परिंदों को शजर वापस बुलाता है

शायद मिरी निगाह में कोई शिगाफ़ था

वर्ना उदास रात का चेहरा तो साफ़ था

बहुत मोहतात हो कर साँस लेना मो'तबर हो तुम

हमारा क्या है हम तो ख़ुद ही अपनी रद में रहते हैं

रस्ते फ़रार के सभी मसदूद तो थे

अपनी शिकस्त का मुझे क्यूँ ए'तिराफ़ था

कैनवस पर है ये किस का पैकर-ए-हर्फ़-ओ-सदा

इक नुमूद-ए-आरज़ू जो बे-निशाँ है और बस

मैं ने भी परछाइयों के शहर की फिर राह ली

और वो भी अपने घर का हो गया होना ही था

तेरे बदन की धूप से महरूम कब हुआ

लेकिन ये इस्तिआरा भी मंज़ूम कब हुआ

ना-तमामी के शरर में रोज़ शब जलते रहे

सच तो ये है बे-ज़बाँ मैं भी नहीं तू भी नहीं

सरों के बोझ को शानों पे रखना मोजज़ा भी है

हर इक पल वर्ना हम भी हल्क़ा-ए-सरमद में रहते हैं

तुम भी थे सरशार मैं भी ग़र्क-ए-बहर-ए-रंग-ओ-बू

फिर भला दोनों में आख़िर ख़ुद-कशीदा कौन था

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