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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

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आशिक़ अकबराबादी

1848 - 1918

आशिक़ अकबराबादी

ग़ज़ल 18

अशआर 20

अगर नज़ारा है मंज़ूर खस्ता-हालों का

तो आओ खोल दें जूड़ा तुम्हारे बालों का

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अपने मौक़े पे हर इक बात भली होती है

शब-ए-फ़ुर्क़त में ये सदमे भी मज़ा देते हैं

अपना सानी वो आप ही निकले

आइना भी दिखा के देख लिया

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ज़िक्र करता है इस तरह मेरा

मुझ को गोया मिटाए जाता है

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तिरे कूचे में कोई हूर जाती तो मैं कहता

कि वो जन्नत तो क्या जन्नत है जन्नत ऐसी होती है

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