अज़ीम मुर्तज़ा
ग़ज़ल 13
अशआर 17
दर्द-ए-महरूमी-ए-जावेद भी इक दौलत है
अहल-ए-ग़म भी तिरे शर्मिंदा-ए-एहसाँ निकले
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आज तक याद है वो शाम-ए-जुदाई का समाँ
तेरी आवाज़ की लर्ज़िश तिरे लहजे की थकन
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कुछ नक़्श तिरी याद के बाक़ी हैं अभी तक
दिल बे-सर-ओ-सामाँ सही वीराँ तो नहीं है
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