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फ़ारूक़ शफ़क़

1945 - 1996

फ़ारूक़ शफ़क़ के शेर

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शहर में जीना है चलना दो-रुख़ी तलवार पर

आदमी किस से बचे किस की तरफ़-दारी करे

आज सोचा है जागूँगा मैं रात में

कच्चे फल सा मुझे तोड़ता कौन है

सामने झील है झील में आसमाँ

आसमाँ में ये उड़ता हुआ कौन है

आँधियों का ख़्वाब अधूरा रह गया

हाथ में इक सूखा पत्ता रह गया

अपनी लग़्ज़िश को तो इल्ज़ाम देगा कोई

लोग थक-हार के मुजरिम हमें ठहराएँगे

दिन किसी तरह से कट जाएगा सड़कों पे 'शफ़क़'

शाम फिर आएगी हम शाम से घबराएँगे

सुना है हर घड़ी तू मुस्कुराता रहता है

मुझे भी जज़्ब ज़रा कर के जिस्म-ओ-जाँ में मिला

शहर का मंज़र हमारे घर के पस-ए-मंज़र में है

अब उधर भी अजनबी चेहरे नज़र आने लगे

ज़ेहन की आवारगी को भी पनाहें चाहिए

यूँ शम्ओं को किसी दहलीज़ पर रख कर बुझा

इस सियह-ख़ाने में तुझ को जागना है रात भर

इन सितारों को बे-मक़्सद हथेली पर बुझा

होने वाला था इक हादसा रह गया

कल का सब से बड़ा वाक़िआ रह गया

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