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हिलाल बदायूँनी

1985 | बदायूँ, भारत

हिलाल बदायूँनी के शेर

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कुछ और दे पाए ज़माने को हम 'हिलाल'

पैग़ाम-ए-अम्न देंगे इसी शायरी से हम

ग़रीब शख़्स को मिलता नहीं किसी भी तरह

ये इश्क़ हो गया सरकारी नौकरी की तरह

जब छुआ होगा उस ने फूलों को

होश ख़ुशबू के उड़ गए होंगे

तुम्हारे सामने जज़्बात सारे खोल सकता हूँ

जो सुनना चाहते हो तुम मैं वो भी बोल सकता हूँ

मौजूद मेरे दिल में तुम्हारी जो याद है

ये मेरी मिलकियत है मिरी जाएदाद है

तुम ने जो मेरे दिल को परेशान किया है

ये घर तो तुम्हारा था जो वीरान किया है

कहने पे तेरे माँ को भला कैसे छोड़ दूँ

तू ऐसा कर कि दूसरा शौहर तलाश कर

मौजूद मेरे दिल में जो ज़ख़्मों के दाग़ हैं

वो एक बेवफ़ा के सितम के चराग़ हैं

सारे जहाँ में मेरे सुकूँ का निशाँ नहीं

सब कुछ है मेरे पास मगर मेरी माँ नहीं

सिर्फ़ रिश्ता नहीं एक एहसास है

दूर हो कर भी माँ तो मिरे पास है

मिरे निकाह से पहले ये बात लिख देना

तुम अपने मेहर में मेरी हयात लिख देना

मुझे ये फ़ख़्र है तुम को ख़याल रहता है

तुम्हारे ज़ेहन में कोई 'हिलाल' रहता है

चेहरे से जानेगा आवाज़ से जानेगा

हर शख़्स मुझे मेरे अंदाज़ से जानेगा

'हिलाल' और ज़ियादा हो तेरा ज़ोर-ए-क़लम

ये शायरी तिरी दिल की ज़बान तक पहुँची

मज़ा तो जब है कि दिल का अंधेरा मिट जाए

घरों में लाख चराग़ाँ किया करे कोई

शजर पे इश्क़ के पत्ता हरा नहीं उतरा

मिरी कसौटी पे तू भी खरा नहीं उतरा

उन्हें बताओ बुज़ुर्गों का है करम इस पर

'हिलाल' अच्छा सुख़नवर इसी लिए तो है

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