जलील हैदर लाशारी
ग़ज़ल 7
अशआर 6
जाने कब कौन किसे मार दे काफ़िर कह के
शहर का शहर मुसलमान हुआ फिरता है
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तू ने दस्तक ही नहीं दी किसी दरवाज़े पर
वर्ना खुलने को तो दीवार में भी दर थे बहुत
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मिरे वजूद में वो इस तरह समो जाए
जो मेरे पास है सब कुछ उसी का हो जाए
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वक़्त की मौज हमें पार लगाती कैसे
हम ने ही जिस्म से बाँधे हुए पत्थर थे बहुत
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वो दिल का टूटना तो कोई वाक़िआ न था
अब टूटे दिल की किर्चियों की धार से बचो
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