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नजीब अहमद के शेर

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मिरी नुमूद किसी जिस्म की तलाश में है

मैं रौशनी हूँ अंधेरों में चल रहा हूँ अभी

ख़ेमा-ए-जाँ की तनाबों को उखड़ जाना था

हम से इक रोज़ तिरा ग़म भी बिछड़ जाना था

इस दाएरा-ए-रौशनी-ओ-रंग से आगे

क्या जानिए किस हाल में बस्ती के मकीं हैं

रुकूँ तो हुजला-ए-मंज़िल पुकारता है मुझे

क़दम उठाऊँ तो रस्ता नज़र नहीं आता

मिरी ज़मीं मुझे आग़ोश में समेट भी ले

आसमाँ का रहूँ मैं आसमाँ मेरा

ज़िंदगी भर की कमाई ये तअल्लुक़ ही तो है

कुछ बचे या बचे इस को बचा रखते हैं

इक तिरी याद गले ऐसे पड़ी है कि 'नजीब'

आज का काम भी हम कल पे उठा रखते हैं

आसमानों से ज़मीनों पे जवाब आएगा

एक दिन रात ढले यौम-ए-हिसाब आएगा

'नजीब' इक वहम था दो चार दिन का साथ है लेकिन

तिरे ग़म से तो सारी उम्र का रिश्ता निकल आया

मौत से ज़ीस्त की तकमील नहीं हो सकती

रौशनी ख़ाक में तहलील नहीं हो सकती

ज़मीं पे पाँव ज़रा एहतियात से धरना

उखड़ गए तो क़दम फिर कहाँ सँभलते हैं

वही रिश्ते वही नाते वही ग़म

बदन से रूह तक उकता गई थी

फिर यूँ हुआ कि मुझ पे ही दीवार गिर पड़ी

लेकिन खुल सका पस-ए-दीवार कौन है

किस ने वफ़ा के नाम पे धोका दिया मुझे

किस से कहूँ कि मेरा गुनहगार कौन है

हम तो समझे थे कि चारों दर मुक़फ़्फ़ल हो चुके

क्या ख़बर थी एक दरवाज़ा खुला रह जाएगा

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