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नश्तर ख़ानक़ाही

1931 - 2006 | भारत

प्रमुख आधुनिक शायर

प्रमुख आधुनिक शायर

नश्तर ख़ानक़ाही

ग़ज़ल 37

अशआर 8

अब तक हमारी उम्र का बचपन नहीं गया

घर से चले थे जेब के पैसे गिरा दिए

बिछड़ कर उस से सीखा है तसव्वुर को बदन करना

अकेले में उसे छूना अकेले में सुख़न करना

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मिरी क़ीमत को सुनते हैं तो गाहक लौट जाते हैं

बहुत कमयाब हो जो शय वो होती है गिराँ अक्सर

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पुर्सिश-ए-हाल से ग़म और बढ़ जाए कहीं

हम ने इस डर से कभी हाल पूछा अपना

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धमक कहीं हो लरज़ती हैं खिड़कियाँ मेरी

घटा कहीं हो टपकता है साएबान मिरा

पुस्तकें 15

ऑडियो 10

अभी तक जब हमें जीना न आया

कभी तो मुल्तवी ज़िक्र-ए-जहाँ-गर्दां भी होना था

कशिश तो अब भी ग़ज़ब की है नाज़नीनों में

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