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Pandit Daya Shankar Naseem Lakhnawi's Photo'

पंडित दया शंकर नसीम लखनवी

1811 - 1845 | लखनऊ, भारत

19वीं सदी में लखनऊ के अग्रणी शायरों में से एक, प्रख्यात मसनवी गुलज़ार-ए-नसीम के रचयिता

19वीं सदी में लखनऊ के अग्रणी शायरों में से एक, प्रख्यात मसनवी गुलज़ार-ए-नसीम के रचयिता

पंडित दया शंकर नसीम लखनवी के शेर

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दोज़ख़ जन्नत हैं अब मेरी नज़र के सामने

घर रक़ीबों ने बनाया उस के घर के सामने

लाए उस बुत को इल्तिजा कर के

कुफ़्र टूटा ख़ुदा ख़ुदा कर के

समझा है हक़ को अपने ही जानिब हर एक शख़्स

ये चाँद उस के साथ चला जो जिधर गया

बुतों की गली छोड़ कर कौन जाए

यहीं से है काबा को सज्दा हमारा

क्या लुत्फ़ जो ग़ैर पर्दा खोले

जादू वो जो सर पे चढ़ के बोले

जुनूँ की चाक-ज़नी ने असर किया वाँ भी

जो ख़त में हाल लिखा था वो ख़त का हाल हुआ

जब मिले दो दिल मुख़िल फिर कौन है

बैठ जाओ ख़ुद हया उठ जाएगी

कूचा-ए-जानाँ की मिलती थी राह

बंद कीं आँखें तो रस्ता खुल गया

जब जीते-जी मिरे काम आएगी

क्या ये दुनिया आक़िबत बख़्शवाएगी

जो दिन को निकलो तो ख़ुर्शीद गिर्द-ए-सर घूमे

चलो जो शब को तो क़दमों पे माहताब गिरे

मकान सीने का पाता हूँ दम-ब-दम ख़ाली

नज़र बचा के तू दिल किधर को जाता है

चला दुख़्तर-ए-रज़ को ले कर जो साक़ी

फ़रिश्ता हुए साथ घर देखने को

मअ'नी-ए-रौशन जो हों तो सौ से बेहतर एक शेर

मतला-ए-ख़ुर्शीद काफ़ी है पए-दीवान-ए-सुब्ह

सुब्ह-दम ग़ाएब हुए 'अंजुम' तो साबित हो गया

ख़ंदा-ए-बेहूदा पर तोड़े गए दंदान-ए-सुब्ह

पहुँची राहत हम से किसी को बल्कि अज़िय्यत कोश हुए

ज़िंदा थे तो बार-ए-शिकम थे मर के वबाल-ए-दोश हुए

था सम पे ये उस परी का नक़्शा

सब आँख मिला कहते थे

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