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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

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क़लक़ मेरठी

1832/3 - 1880

क़लक़ मेरठी

ग़ज़ल 42

अशआर 51

क्या ख़ाना-ख़राबों का लगे तेरे ठिकाना

उस शहर में रहते हैं जहाँ घर नहीं होता

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ख़ुदा से डरते तो ख़ौफ़-ए-ख़ुदा करते हम

कि याद-ए-बुत से हरम में बुका करते हम

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जी है ये बिन लगे नहीं रहता

कुछ तो हो शग़्ल-ए-आशिक़ी ही सही

तू है हरजाई तो अपना भी यही तौर सही

तू नहीं और सही और नहीं और सही

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तुझ से ज़िंदगी घबरा ही चले थे हम तो

पर तशफ़्फ़ी है कि इक दुश्मन-ए-जाँ रखते हैं

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रुबाई 69

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