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क़ासिम अली ख़ान अफ़रीदी

क़ासिम अली ख़ान अफ़रीदी

ग़ज़ल 30

अशआर 14

लब-ए-शीरीं से अगर हो तेरा लब शीरीं

कोहकन तू भी तो अब दामन-ए-कोहसार छोड़

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मुझे ख़ुशी कि गिरफ़्तार मैं हुआ तेरा

तो शाद हो कि है ऐसा शिकार असीर मिरा

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शैख़ मुझ को डरा अपनी मुसलमानी थाम

हम फ़क़ीरों का किसी रंग से ईमान जाए

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बस नहीं चलता है वर्ना अपने मर जाने के साथ

फेंक देते खोद कर दुनिया की सब बुनियाद हम

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है जुदा सज्दा की जा हिन्दू मुसलमाँ की मगर

फ़हम वालों के तईं दैर-ओ-हरम दोनों एक

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