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राम रियाज़

1933 - 1990 | पाकिस्तान

राम रियाज़

ग़ज़ल 21

अशआर 7

ज़िंदगी कशमकश-ए-वक़्त में गुज़री अपनी

दिन ने जीने दिया रात ने मरने दिया

तिरे इंतिज़ार में इस तरह मिरा अहद-ए-शौक़ गुज़र गया

सर-ए-शाम जैसे बिसात-ए-दिल कोई ख़स्ता-हाल समेट ले

अब कहाँ वो पहली सी फ़ुर्सतें मयस्सर हैं

सारा दिन सफ़र करना सारी रात ग़म करना

आँसू जो बहें सुर्ख़ तो हो जाती हैं आँखें

दिल ऐसा सुलगता है धुआँ तक नहीं आता

ज़िंदगी तो सपना है कौन 'राम' अपना है

क्या किसी को दुख देना क्या किसी का ग़म करना

पुस्तकें 2

 

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