शहाबुद्दीन साक़िब के शेर
शजर की याद रुलाती ही थी मगर अब तो
जो आशियाँ के बराबर था वो क़फ़स भी गया
तुम्हारा बाग़ से जाना भी इक क़यामत है
गुलों से ख़ुशबू गई और फलों से रस भी गया
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