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शाकिर देहलवी

दिल्ली, भारत

शाकिर देहलवी के शेर

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स्याह आँखों की रंगत की इक झलक के लिए

तिरी तलाश में सुरमा-फ़रोश रहते हैं

इक अधूरा ख़्वाब जो अक्सर डराता था मुझे

तेरा जाना उस अधूरे ख़्वाब की ता'बीर है

इस क़दर डर है मौत का उस को

जान दे देगा ज़िंदगी के लिए

रोज़ तारीख़ कैलेंडर में बदल जाती थी

फिर वो तारीख़ भी आई कि कैलेंडर बदला

हमारे घर में ये तहज़ीब अब भी ज़िंदा है

बुज़ुर्ग बोलें तो बच्चे ख़मोश रहते हैं

नींद आई तो धूप खिले तक सोएँगे

ख़्वाबों की फ़ेहरिस्त बना कर बैठे हैं

शुक्र कीजे कि मौत है वर्ना

ज़िंदगी से हमें बचाता कौन

दो में कोई एक हो तो फिर भी बन जाती है बात

मसअला ये है कि हम दोनों ही थे ज़िद्दी बहुत

बल्लियों कूदता उछलता दिल

आप की इक नहीं पे बैठ गया

हो भटकने का जिसे शौक़ मिरे साथ चले

जो हो मंज़िल का तलबगार पलट जाए अभी

हम से मिल कर देखिए अच्छा लगेगा आप को

आदमिय्यत के अभी तक अन-छुए पहलू हैं हम

ये दिल-विल का धड़कना कुछ नहीं है

तिरे सीने में जो हलचल है मैं हूँ

ये तिरी याद जो कर जाती है बेचैन हमें

ये तिरी याद कभी बाइस-ए-तसकीन भी थी

तुम से टकराए तो हुआ मा'लूम

हादसे ख़ुशनुमा भी होते हैं

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