शाकिर देहलवी के शेर
स्याह आँखों की रंगत की इक झलक के लिए
तिरी तलाश में सुरमा-फ़रोश रहते हैं
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इक अधूरा ख़्वाब जो अक्सर डराता था मुझे
तेरा जाना उस अधूरे ख़्वाब की ता'बीर है
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इस क़दर डर है मौत का उस को
जान दे देगा ज़िंदगी के लिए
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रोज़ तारीख़ कैलेंडर में बदल जाती थी
फिर वो तारीख़ भी आई कि कैलेंडर बदला
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हमारे घर में ये तहज़ीब अब भी ज़िंदा है
बुज़ुर्ग बोलें तो बच्चे ख़मोश रहते हैं
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नींद आई तो धूप खिले तक सोएँगे
ख़्वाबों की फ़ेहरिस्त बना कर बैठे हैं
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शुक्र कीजे कि मौत है वर्ना
ज़िंदगी से हमें बचाता कौन
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दो में कोई एक हो तो फिर भी बन जाती है बात
मसअला ये है कि हम दोनों ही थे ज़िद्दी बहुत
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हो भटकने का जिसे शौक़ मिरे साथ चले
जो हो मंज़िल का तलबगार पलट जाए अभी
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हम से मिल कर देखिए अच्छा लगेगा आप को
आदमिय्यत के अभी तक अन-छुए पहलू हैं हम
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ये दिल-विल का धड़कना कुछ नहीं है
तिरे सीने में जो हलचल है मैं हूँ
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ये तिरी याद जो कर जाती है बेचैन हमें
ये तिरी याद कभी बाइस-ए-तसकीन भी थी
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तुम से टकराए तो हुआ मा'लूम
हादसे ख़ुशनुमा भी होते हैं
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