यासमीन हबीब
ग़ज़ल 14
अशआर 15
हमें भी तजरबा है बे-घरी का छत न होने का
दरिंदे, बिजलियाँ, काली घटाएँ शोर करती हैं
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जो चला गया सो चला गया जो है पास उस का ख़याल रख
जो लुटा दिया उसे भूल जा जो बचा है उस को सँभाल रख
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हमें सैराब रक्खा है ख़ुदा का शुक्र है उस ने
जहाँ बंजर ज़मीनें हों अनाएँ शोर करती हैं
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ये कमरा और ये गर्द-ओ-ग़ुबार उस का है
वो जिस ने आना नहीं इंतिज़ार उस का है
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आते रहते हैं फ़लक से भी इशारे कुछ न कुछ
बात कर लेते हैं हम से चाँद तारे कुछ न कुछ
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