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उर्दू की श्रेष्ठ व लोकप्रिय हास्य/व्यंग्य तहरीरों का संग्रह

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हॉस्टल में पड़ना

हमने कॉलेज में ता’लीम तो ज़रूर पाई और रफ़्ता रफ़्ता बी.ए. भी पास कर लिया, लेकिन इस निस्फ़ सदी के दौरान जो कॉलेज में गुज़ारनी पड़ी, हॉस्टल में दाखिल होने की इजाज़त हमें स़िर्फ एक ही दफ़ा मिली। खुदा का यह फ़ज़ल हम पर कब और किस तरह हुआ, ये सवाल एक दास्तान

पतरस बुख़ारी

ग़ालिब जदीद शु'अरा की एक मजलिस में

‎(दौर-ए-जदीद के शोअरा की एक मजलिस में मिर्ज़ा ग़ालिब का इंतज़ार किया जा रहा है। उस ‎मजलिस में तक़रीबन तमाम जलील-उल-क़द्र जदीद शोअरा तशरीफ़ फ़र्मा हैं। मसलन मीम नून ‎अरशद, हीरा जी, डाक्टर क़ुर्बान हुसैन ख़ालिस, मियां रफ़ीक़ अहमद ख़ूगर, राजा अह्द अली खान, ‎प्रोफ़ेसर

कन्हैया लाल कपूर

कुत्ते

इलम-उल-हैवानात के प्रोफ़ेसरों से पूछा, सलोत्रियों से द​िरयाफ़्त किया, ख़ुद सर खपाते रहे लेकिन कभी समझ में न आया कि आख़िर कुत्तों का फ़ायदा क्या है? गाय को लीजिए, दूध देती है, बकरी को लीजिए, दूध देती है और मेंगनियाँ भी। ये कुत्ते क्या करते हैं? कहने लगे

पतरस बुख़ारी

पड़िए गर बीमार

तो कोई न हो तीमारदार? जी नहीं! भला कोई तीमारदार न हो तो बीमार पड़ने से फ़ायदा? और अगर मर जाईए तो नौहा-ख़्वाँ कोई न हो? तौबा कीजिए मरने का ये अकल खरा दक़ियानूसी अंदाज़ मुझे कभी पसंद न आया। हो सकता है ग़ालिब के तरफ़दार ये कहें कि मग़रिब को महज़ जीने का क़रीना

मुश्ताक़ अहमद यूसुफ़ी

मुरीदपुर का पीर

अक्सर लोगों को इस बात का ता’ज्जुब होता है कि मैं अपने वतन का ज़िक्र कभी नहीं करता। बा’ज़ इस बात पर भी हैरान हैं कि मैं अब कभी अपने वतन को नहीं जाता। जब कभी लोग मुझसे इसकी वजह पूछते हैं तो मैं हमेशा बात टाल देता हूँ। इससे लोगों को तरह तरह के शुबहात होने

पतरस बुख़ारी

जुनून-ए-लतीफ़ा

बड़ा मुबारक होता है वो दिन जब कोई नया ख़ानसामां घर में आए और इससे भी ज़्यादा मुबारक वो दिन जब वो चला जाये! चूँकि ऐसे मुबारक दिन साल में कई बार आते हैं और तल्ख़ी-ए-काम-ओ-दहन की आज़माईश करके गुज़र जाते हैं। इसलिए इत्मिनान का सांस लेना, बक़ौल शायर सिर्फ़

मुश्ताक़ अहमद यूसुफ़ी

बीवी कैसी होना चाहिए

मज़ाहिया अंदाज़ में मर्दों से मुत्तालिक एक बहुत ही अहम सवाल पर बहस करती दास्तान है, जिसमें इस बात पर तफ़्सील से बहस की गई है कि शरीक़-ए-हयात यानी बीवी कैसी होनी चाहिए। इसके लिए कहानी में कई वाक़िआत, हादिसात का ज़िक्र है। आख़िर में यह नतीजा बरामद होता है जिसे हर शादीशुदा मर्द जानना चाहेगा।

चौधरी मोहम्मद अली रुदौलवी

चारपाई

चारपाई और मज़हब हम हिंदोस्तानियों का ओढ़ना बिछौना है। हम इसीपर पैदा होते हैं और यहीं से मदरसा, ऑफ़िस, जेल-ख़ाने, कौंसिल या आख़िरत का रास्ता लेते हैं। चारपाई हमारी घुट्टी में पड़ी हुई है। हम इसपर दवा खाते हैं। दुआ' और भीक भी मांगते हैं। कभी फ़िक्र-ए-सुख़न करते

रशीद अहमद सिद्दीक़ी

मिर्ज़ा ग़ालिब का खत पंडित नेहरू के नाम

जान-ए-ग़ालिब, बैन-उल-अक़वामी सुलह के तालिब, मियाँ जवाहर लाल, ख़ुश फ़िक्र-ओ-ख़ुश-ख़िसाल जुग-जुग जियो, ता-क़यामत आब-ए-हयात पियो। सुनो साहब! इमाम-उल-हिंद मौलाना अबुल कलाम आज़ाद आए हैं और अपने हमराह दो नुस्खे़ दीवान-ए-ग़ालिब के लाए हैं, जो मुझे अभी मौसूल

फ़ुर्क़त काकोरवी

चारपाई और कल्चर

एक फ़्रांसीसी मोफ़क्किर कहता है कि मूसीक़ी में मुझे जो बात पसंद है वो दरअसल वो हसीन ख़वातीन हैं जो अपनी नन्ही नन्ही हथेलियों पर थोड़ियां रखकर उसे सुनती हैं। ये क़ौल मैंने अपनी बर्रियत में इसलिए नक़ल नहीं किया कि मैं जो कव़्वाली से बेज़ार हूँ तो इसकी असल

मुश्ताक़ अहमद यूसुफ़ी

कस्टम का मुशायरा

कराची में कस्टम वालों का मुशायरा हुआ तो शायर लोग आओ-भगत के आ'दी दनदनाते पान खाते, मूछों पर ताव देते ज़ुल्फ़-ए-जानाँ की मलाएँ लेते ग़ज़लों के बक़्चे बग़ल में मारकर पहुँच गए। उनमें से अक्सर क्लॉथ मिलों के मुशायरों के आ'दी थे। जहाँ आप थान भर की ग़ज़ल भी पढ़ दें

इब्न-ए-इंशा

क्रिकेट

मिर्ज़ा अब्दुल वदूद बेग का दावा कुछ ऐसा ग़लत मालूम नहीं होता कि क्रिकेट बड़ी तेज़ी से हमारा क़ौमी खेल बनता जा रहा है। क़ौमी खेल से ग़ालिबन उनकी मुराद ऐसा खेल है जिसे दूसरी कौमें नहीं खेलतीं। हम आज तक क्रिकेट नहीं खेले लेकिन इसका ये मतलब नहीं कि हमें उसकी

मुश्ताक़ अहमद यूसुफ़ी

फ़ैज़ और मैं

बड़े लोगों के दोस्तों और हम जलीसों में दो तरह के लोग होते हैं। एक वो जो इस दोस्ती और हम जलीसी का इश्तिहार देकर ख़ुद भी नामवरी हासिल करने की कोशिश करते हैं। दूसरे वो इ’ज्ज़-ओ-फ़रोतनी के पुतले जो शोहरत से भागते हैं। कम अज़ कम अपने ममदूह की ज़िन्दगी में। हाँ

इब्न-ए-इंशा

सिन्फ़-ए-लाग़र

सुनते चले आए हैं कि आम, गुलाब और साँप की तरह औरतों की भी बेशुमार क़िस्में। फ़र्क़ सिर्फ़ इतना है कि आम और गुलाब की क़िस्म का सही अंदाज़ा काटने और सूँघने के बाद होता है और अगर मार गज़ीदा मर जाये तो साँप की क़िस्म का पता चलाना भी चंदाँ दुशवार नहीं। लेकिन आख़िर-उल-ज़िक्र

मुश्ताक़ अहमद यूसुफ़ी

चचा छक्कन ने तस्वीर टांगी

चचा छक्कन कभी-कभार कोई काम अपने ज़िम्मे क्या ले लेते हैं घर भर को तिगनी का नाच नचा देते हैं । 'आ बे लौंडे, जा बे लौंडे, ये कीजो, वो दीजो', घर बाज़ार एक हो जाता है। दूर क्यों जाओ, परसों परले रोज़ का ज़िक्र है, दुकान से तस्वीर का चौखटा लग कर आया। इस वक़्त

सय्यद इम्तियाज़ अली ताज

मौलवी साहब की बीवी

आप मुझसे मुत्तफ़िक़ हों या न हों मुझे उसकी पर्वा नहीं, मगर मेरा तो ये ख़्याल है कि ‘मियां बीवी’ के ताल्लुक़ात के लिहाज़ से घर की तीन क़िस्में होती हैं। पहली क़िस्म तो ये है कि मियां भी घर को अपना घर समझें और बीवी भी। उस घर को बस ये समझो कि जन्नत है। लेकिन

मिर्ज़ा फ़रहतुल्लाह बेग

जिगर-गोशे

कृष्ण चंदर

धोबी

अलीगढ़ में नौकर को आक़ा ही नहीं “आक़ा-ए-नामदार” भी कहते हैं और वो लोग कहते हैं जो आज कल ख़ुद आक़ा कहलाते हैं ब-मा'नी तलबा! इससे आप अंदाज़ा कर सकते हैं कि नौकर का क्या दर्जा है। फिर ऐसे आक़ा का क्या कहना “जो सपेद-पोश” वाक़े हों। सपेद पोश का एक लतीफ़ा भी सुन

रशीद अहमद सिद्दीक़ी

इनकम टैक्स वाले

‎ मुनकिर-नकीर और महकमा इन्कम टैक्स के इंस्पेक्टरों में यही फ़र्क़ है कि मुनकिर-नकीर मरने के ‎बाद हिसाब मांगते हैं और मोअख़्ख़र-उल-ज़िक्र मरने से पहले। ‎ बल्कि ये कि मुनकिर-नकीर सिर्फ़ एक बार मांगते हैं और इन्कम टैक्स के इंस्पेक्टर बार-बार नीज़ ये ‎कि

कन्हैया लाल कपूर

क्रिकेट मैच

बा’ज़ दोस्तों ने स्यालकोट चलने को कहा तो हम फ़ौरन तैयार हो गए मगर जब ये मालूम हुआ कि इस सफ़र का मक़सद क्रिकेट मैच है तो यकायक साँप सूंघ गया। सफ़र का तमाम वलवला एक बीती हुई याद की नज़र हो कर रह गया। अब लाख लाख सब पूछते हैं कि चक्कर आगया है। फ़ालिज गिरा है। क़ल्ब

शौकत थानवी

पाँच क़िस्म के बेहूदा शौहर

अगर किसी मर्द से पूछा जाये पाँच किस्म के बेहूदा शौहर कौन से हैं तो वो कहेगा, ‎‏‘‘‏साहिब अ’क़्ल ‎के नाख़ुन लीजिए। भला शौहर भी कभी बेहूदा हुए हैं। बेहुदगी की सआदत तो बीवियों के हिस्से में ‎आई है।” और अगर किसी औरत से यही सवाल किया जाये तो जवाब मिलेगा, “सिर्फ़

कन्हैया लाल कपूर

हम फिर मेहमान-ए-खु़सूसी बने

मोमिन की पहचान ये है कि वो एक सुराख़ से दुबारा नहीं डसा जा सकता। दूसरी बार डसे जाने के ख़्वाहिशमंद को कोई दूसरा सुराख़ ढूंढना चाहिए। ख़ुद को मेहमान-ए-खुसूसी बनते हमने एक बार देखा था। दूसरी बार देखने की हवस थी। अब हम हर रोज़ बालों में कंघा करके और टाई

इब्न-ए-इंशा

हमारी फिल्में

शफ़ीक़ुर्रहमान

ससुराली रिश्तेदार

मुसीबत ये है कि रेडियो सेट ससुराल में भी है और वहाँ की हर दीवार गोश दारद, मगर बुज़ुर्गों का ये मक़ूला उस वक़्त रह-रह कर उकसा रहा है कि बेटा फांसी के तख़्ता पर भी सच बोलना, ख़्वाह वो फांसी ज़िंदगी भर की क्यों न हो, मौज़ू जिस क़दर नाज़ुक है उसी क़दर अख़लाक़ी जुर्रत

शौकत थानवी

मेरा मन-पसंद सफ़्हा

कुछ लोग सुबह उठते ही जमाही लेते हैं, कुछ लोग बिस्तर से उठते ही वर्ज़िश करते हैं, कुछ लोग गर्म चाय पीते हैं। मैं अख़बार पढ़ता हूँ और जिस रोज़ फ़ुर्सत ज़्यादा हो उस रोज़ तो मैं अख़बार को शुरू से आख़िर तक मअ इश्तिहारात और अदालत के सम्मनों तक पूरा पढ़ डालता

कृष्ण चंदर

दाख़ले जारी हैं

परसों एक साहिब तशरीफ़ लाए, है रिंद से ज़ाहिद की मुलाक़ात पुरानी पहले बरेली को बाँस भेजा करते थे। ये कारोबार किसी वजह से न चला तो कोयलों की दलाली करने लगे। चूँकि सूरत उनकी मुहावरे के ऐन मिस्दाक़ थी, हमारा ख़्याल था इस कारोबार में सुर्ख़रू होंगे, लेकिन

इब्न-ए-इंशा

स्विस बैंक में खाता हमारा

हज़रात! मैं किसी मजबूरी और दबाव के बगै़र और पूरे होश-व-हवास के साथ ये ए'लान करना चाहता हूँ कि स्विट्ज़रलैण्ड के एक बैंक में मेरा एकाउंट मौजूद है। आप इस बात को नहीं मानते तो न मानिए। मेरी बीवी भी पहले इस बात को नहीं मानती थी। अब न सिर्फ़ इस बात को मान

मुजतबा हुसैन

सिगरेट Noशी

साहब, मैं तो अख़बार इसलिए पढ़ता था कि दुनिया के बारे में मेरी मालूमात अपटूडेट रहें। आज का अख़बार पढ़ कर पता चला कि मेरी तो अपने बारे में मालूमात अपटूडेट नहीं हैं। यहाँ डेट से मुराद वो नहीं जो आप समझ रहे हैं। अमरीकी डाक्टरों ने तहक़ीक़ के बाद बताया है कि

मोहम्मद यूनुस बट

ईद मिलना

मिर्ज़ा साहब हमारे हम-साए थे, यानी उनके घर में जो दरख़्त था उस का साया हमारे घर में भी आता था। अल्लाह ने उन्हें सब कुछ वाफ़िर मिक़दार में दे रखा था। बच्चे इतने थे कि बंदा उनके घर जाता तो लगता स्कूल में आ गया है। उनके हाँ एक पानी का तालाब था जिसमें सब बच्चे

मोहम्मद यूनुस बट

कार बिकाऊ है

हम से पहले भी कोई साहब गुज़रे हैं जिन्होंने बैठे बिठाए बकरी पाल ली थी और फिर उम्र भर उसके ज़ानो पर सर रख-कर मिनमिनाते रहते थे। हमें ग़ैब से ये सूझी कि इत्तिफ़ाक़ से विलायत जा रहे हैं, क्यों न वहाँ से नई कार लाई जाए? या'नी क्यों न जाने से पहले पुरानी कार

कर्नल मोहम्मद ख़ान

मकान की तलाश में

मकान की तलाश, एक अच्छे और दिल-पसन्द मकान की तलाश, दुनिया के मुश्किल-तरीन उमूर में से है। तलाश करने वाले का क्या-क्या जी नहीं चाहता। मकान हसीन हो, जाज़िब-ए-नज़र हो, आस-पास का माहौल रूह-परवर और ख़ुश-गवार हो, सिनेमा बिल्कुल नज़दीक हो, बाज़ार भी दूर न हो। ग़रज़

शफ़ीक़ुर्रहमान

वकील

हिन्दुस्तान में जैसी अच्छी पैदावार वकीलों की हो रही है अगर उतना ही ग़ल्ला पैदा होता तो कोई भी फ़ाक़े न करता। मगर मुसीबत तो ये है कि ग़ल्ला पैदा होता है कम और वकीलों की फ़सल होती है अच्छी। नतीजा यही होता है कि वही सब ग़ल्ला खा जाते हैं और बाक़ी सब के लिए

शौकत थानवी

गधे शुमारी

“यरक़ान भाई।” “हाँ फ़ुरक़ान भाई।” “भई, बहुत उदास और रंजीदा और मलूल वग़ैरा दिखाई दे रहे हो। क्या हो गया?” “जो होना था हो गया, बुरा हुआ या भला हुआ।” “यरक़ान भाई, तुम्हारी तबीयत कुछ ठीक नहीं लगती जो इतने पुराने फ़िल्मी गाने अलाप रहे हो।” “ये

मुस्तनसिर हुसैन तारड़

यूनीवर्सिटी के लड़के

साहब लड़कों की तो आजकल भरमार है। जिधर देखिए लड़के ही लड़के नज़र आते हैं। गोया ख़ुदा की क़ुदरत का जलवा यही लड़के हैं। घर अंदर लड़के, घर बाहर लड़के, पास पड़ोस में लड़के, मुहल्ला मुहल्ला लड़के, गाँव और शहरों में लड़के, सूबे और मुल्क में लड़के, ग़रज़ ये कि दुनिया भर में

अहमद जमाल पाशा

हमने कुत्ता पाला

“आप ख़्वाह मख़्वाह कुत्तों से डरते हैं। हर कुत्ता बावला नहीं होता। जैसे हर इंसान पागल नहीं होता। और फिर ये तो “अलसेशियन” है। बहुत ज़हीन और वफ़ादार।” कैप्टन हमीद ने हमारी ढारस बंधाते हुए कहा।कैप्टन हमीद को कुत्ते पालने का शौक़ है। शौक़ नहीं जुनून है। कुत्तों

कन्हैया लाल कपूर

क्लब

यह उन दिनों का ज़िक्र है जब मैं हर शाम क्लब जाया करता था। शाम को बिलियर्ड रुम का इफ़्तिताह हो रहा है। चंद शौक़ीन अंग्रेज़ मेंबरों ने ख़ासतौर पर चंदा इकट्ठा किया... एक निहायत क़ीमती बिलियर्ड की मेज़ मँगाई गई। क्लब के सबसे मुअज़्ज़िज़ और पुराने मेंबर रस्म-ए-इफ़्तिताह

शफ़ीक़ुर्रहमान

मैं एक शायर हूँ

साहब में एक शायर हूँ छपा हुआ दीवान तो ख़ैर कोई नहीं है। मगर कलाम ख़ुदा के फ़ज़ल से इतना मौजूद है कि अगर मैं मुरत्तब करने बैठूँ तो एक छोड़ चार-पाँच दीवान मुरत्तब कर ही सकता हूँ। अपनी शायरी के मुताल्लिक़ अब मैं ख़ुद क्या अर्ज़ करूँ अलबत्ता मुशायरों में जानेवाले

शौकत थानवी

कुछ सिगरेट के बारे में

साइंसदानों ने अपनी तरफ़ से ये बुरी ख़बर सुनाई है कि हर बड़े शहर की हवा में एक दिन सांस लेना दो पैकेट सिगरेट पीने के बराबर है। हालाँकि इससे अच्छी ख़बर और क्या होगी कि हम मुफ़्त में रोज़ाना दो डिब्बी सिगरेट पीते हैं। मुझे तो गाँव की साफ़ फ़िज़ाओं में रहने वालों

मोहम्मद यूनुस बट

बीमार की बातें

“तंदुरुस्ती हज़ार नेअमत है।” ये कहावत पहले महज़ कहावत थी लेकिन इसमें एक मिसरे का इज़ाफ़ा कर के सालिक ने इसे एक मुकम्मल शे’र बना दिया है, तंगदस्ती अगर न हो सालिक तंदुरुस्ती हज़ार नेअमत है गोया पुराने ज़माने के लोगों में ये ख़्याल आम था कि, तंगदस्ती

इब्राहिम जलीस

दफ़्तर में नौकरी

हमने दफ़्तर में क्यों नौकरी की और छोड़ी, आज भी लोग पूछते हैं मगर पूछने वाले तो नौकरी करने से पहले भी पूछा करते थे। “भई, आख़िर तुम नौकरी क्यों नहीं करते?” “नौकरी ढूंडते नहीं हो या मिलती नहीं?” “हाँ साहब, इन दिनों बड़ी बेरोज़गारी है।” “भई,

अहमद जमाल पाशा

अगर मैं शौहर होती

आप पूछेंगे कि मेरे दिल में ऐसा ख़याल क्यों आया? आप इसे ख़याल कह रहे हैं? जनाब ये तो मेरी आरज़ू है, एक देरीना तमन्ना है। ये ख़्वाहिश तो मेरे दिल में उस वक़्त से पल रही है, जब मैं लड़के लड़की का फ़र्क़ भी नहीं जानती थी। इस आरज़ू ने उस दिन मेरे दिल में जन्म

सरवर जमाल

अदीबों की क़िस्में

हिंदुस्तान और पाकिस्तान की अगर राय शुमारी की जाये तो नव्वे फ़ीसदी अदीब निकलेगा बाक़ी दस फ़ीसदी पढ़ा लिखा, लेकिन अगर शोअरा हज़रात के सिलसिले में गिनती गिनी जाये तो पता चलेगा कि पूरा आवे का आवा ही टेढ़ा है। अब ज़रा ये भी सोचिए कि राय शुमारी करने वाले अमले

अहमद जमाल पाशा

नौकरी का इंटरव्यू

इस मज़मून पर बहस करने से पहले ये बता देना ज़रूरी है कि नौकरी के इंटरव्यू दो क़िस्म के होते हैं। एक तो वो जिसमें उम्मीदवार ऐसा नौजवान होता है जिसकी तालीम पर माँ-बाप की कमाई लुट चुकी होती है जिस नौजवान की आइन्दा ज़िंदगी से वालिदैन की हज़ारों उम्मीदें वाबस्ता

भारत चंद खन्ना

रोज़ा रखा

आज 28वाँ रोज़ा था। ग़फ़ूर मियाँ के कंधे पर एक खुर्दुरा तौलिया, क़मीज़ और पाएजामा पड़ा था। कुछ उदास-उदास घर से बाहर पट्टियों पर बैठे थे कि बफ़ाती उधर से गुज़रा। ‘‘अस्सलाअ... ग़फ़ूर दादा!” ग़फ़ूर मियाँ ने चौंक कर बफ़ाती को देखा और अ'लैक कह कर दूसरी तरफ़

तखल्लुस भोपाली

मुशायरों में हूटिंग के फ़वाइद

मुशायरे तो बहुत होते हैं लेकिन हर मुशायरा कामयाब नहीं होता और सिर्फ़ कामयाबी भी काफ़ी नहीं होती। ‎मुशायरा अच्छे नंबरों से कामयाब होना चाहिए। ऐसी ही कामयाबी से मुशायरों का मुस्तक़बिल रोशन होता है। ‎मुशायरों की कामयाबी का इन्हिसार अब हूटिंग पर है। हूटिंग

यूसूफ़ नाज़िम

हम भी शौहर हैं

आदमी को बिगड़ते देर नहीं लगती। अच्छा भला आदमी देखते देखते शौहर बन जाता है। ये सब ‎क़िस्मत के खेल होते हैं और इस मुआमले में सबकी क़िस्मत तक़रीबन यकसाँ होती है। शौहर की ‎लकीर सब के हाथ में होती है और हाथ की लकीरों में यही एक लकीर होती है जिससे सब फ़क़ीर

यूसूफ़ नाज़िम

मुल्लाओं की कॉन्फ़्रेंस

जुमा की नमाज़ पढ़ कर मस्जिद से निकल रहा था कि एक इश्तिहार मेरी तरफ़ बढ़ा दिया गया। मैं पढ़ने लगा। लिखा था, “आप हज़रात से इल्तिजा है कि मुल्लाओं की कान्फ़्रैंस में शरीक होकर सवाब-ए-दारैन हासिल करें। लेकिन कान्फ़्रैंस में शिरकत के लिए 'मौलवी' होने की सनद लाज़िमी

हाशिम अज़ीमाबादी

सितम ईजाद क्रिकेट और मैं बेचारा

मैं क्रिकेट से इसलिए भागता हूँ कि इसमें खेलना कम पड़ता है और मेहनत ज़्यादा करना पड़ती है। सारी मेहनत पर उस वक़्त पानी फिर जाता है जब खेलने वाली एक टीम हार जाती है। ईमान की बात है कि हमने “साइंस” को हमेशा रश्क की नज़रों से देखा मगर कभी उस मज़मून से दिल न

अहमद जमाल पाशा

मुफ़्त के मशवरे

ये कोई इंग्लैंड या अमरीका तो है नहीं जहाँ ख़याल बिकता हो। मशवरे हासिल करने के लिए रुपया ख़र्च करना होता है। किसी से मिलने या बातें करने के लिए हफ़्तों पहले अपवाइंटमेंट करना पड़ता हो, ये जनाब हिंदोस्तान है हिंदोस्तान, जहाँ रिश्तेदारों से ज़्यादा मुलाक़ाती

सरवर जमाल

Jashn-e-Rekhta | 8-9-10 December 2023 - Major Dhyan Chand National Stadium, Near India Gate - New Delhi

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