फ़ना बुलंदशहरी के शेर
इस जहाँ में नहीं कोई अहल-ए-वफ़ा
ऐ 'फ़ना' इस जहाँ से किनारा करो
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आग़ाज़ तो अच्छा था 'फ़ना' दिन भी भले थे
फिर रास मुझे इश्क़ का अंजाम न आया
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उठा पर्दा तो महशर भी उठेगा दीदा-ए-दिल में
क़यामत छुप के बैठी है नक़ाब-ए-रू-ए-क़ातिल में
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ऐ 'फ़ना' मेरी मय्यत पे कहते हैं वो
आप ने अपना वा'दा वफ़ा कर दिया
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क्या भूल गए हैं वो मुझे पूछना क़ासिद
नामा कोई मुद्दत से मिरे काम न आया
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तमाम होश की दुनिया निसार है उस पर
तिरी गली में जिसे नींद आ गई होगी
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बिजली तिरे जल्वों की गिर जाए कभी मुझ पर
ऐ जान मिरी हस्ती इस आग में जल जाए
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न दैर में न हरम में जबीं झुकी होगी
तुम्हारे दर पे अदा मेरी बंदगी होगी
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ऐ 'फ़ना' मिलता है आशिक़ को बक़ा का पैग़ाम
ज़िंदगी जब रह-ए-उल्फ़त में फ़ना होती है
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