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मीर ख़लीक़

1766 - 1844 | लखनऊ, भारत

मीर ख़लीक़ के शेर

मिस्ल-ए-आईना है उस रश्क-ए-क़मर का पहलू

साफ़ इधर से नज़र आता है उधर का पहलू

सर झुका लेता है लाला शर्म से

जब जिगर के दाग़ दिखलाते हैं हम

नज़्अ' में गर मिरी बालीं पे तू आया होता

इस तरह अश्क मैं आँखों में लाया होता

ग़फ़लत में फ़र्क़ अपनी तुझ बिन कभू आया

हम आप के आए जब तक कि तू आया

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