साग़र ख़य्यामी
ग़ज़ल 7
अशआर 26
मुद्दत हुई है बिछड़े हुए अपने-आप से
देखा जो आज तुम को तो हम याद आ गए
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जान जाने को है और रक़्स में परवाना है
कितना रंगीन मोहब्बत तिरा अफ़्साना है
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कितने चेहरे लगे हैं चेहरों पर
क्या हक़ीक़त है और सियासत क्या
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