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ग़ज़ल
बोसा देते हो अगर तुम मुझ को दो दो सब के दो
जीभ के दो सिर के दो रुख़्सार के दो सब के दो
सरदार गंडा सिंह मशरिक़ी
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ग़ज़ल
जिन्हें मक़्सद में अपने कामयाबी हो नहीं पाती
वो जिद्द-ओ-जहद करते हैं मगर पैहम नहीं करते
मोहम्मद हाज़िम हस्सान
ग़ज़ल
जिन की जीभ के कुंडल में था नीश-ए-अक़रब का पैवंद
लिक्खा है उन बद-सुखनों की क़ौम पे अज़दर बरसे थे
मजीद अमजद
नज़्म
अगर ख़ुदा मिल गया मुझ को
और अपने फ़ज़्ल से देगा इजाज़त माँगने की कुछ
तो न दस्तार-ओ-क़बा न जिब्ह-ओ-ख़िरक़ा
अबु बक्र अब्बाद
नज़्म
'नून-मीम-राशिद' के इंतिक़ाल पर
क्या लफ़्ज़ है कि जीभ से होता नहीं अदा
कमज़ोर हाथ हैं कि नहीं उठते सू-ए-बाम
राजेन्द्र मनचंदा बानी
नज़्म
फ़ता-कल्लमू तअ'रफू
न जाने कैसे मेरी जीभ गुंग थी
मैं सुम्मुन बुक्मुम था, बे-ज़बान, दम-ब-ख़ुद
सत्यपाल आनंद
नज़्म
मेरा दोस्त अबुल-हौल
हमारे लिए सिर्फ़ रोटी की जिद्द-ओ-जोहद
औरतों के बरहना बदन की तमन्ना से आगे कहीं कुछ नहीं है
अख़्तरुल ईमान
नज़्म
अश्क मेरे अपने
जिद्द-ओ-जहद में जूझ रहे होंगे
कुछ पूजा-घर के दिए के साथ जल रहे होंगे