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नज़्म
नौ-जवान से
न देख ज़ोहद की तू इस्मत-ए-गुनह-आलूद
गुनह में फ़ितरत-ए-इस्मत-मआब पैदा कर
असरार-उल-हक़ मजाज़
ग़ज़ल
मिरे मास्टर न होते जो उलूम-ओ-फ़न में दाना
कभी मौला-बख़्श-साहब का न मैं शिकार होता
कैफ़ अहमद सिद्दीकी
ग़ज़ल
इस जानिब हम उस जानिब तुम बीच में हाइल एक अलाव
कब तक हम तुम अपने अपने ख़्वाबों को झुलसाएँगे
बशर नवाज़
ग़ज़ल
बुझ चुका जो क्यों वो सुलगाऊँ मोहब्बत का अलाव
अब तलक झेली जफ़ा की सख़्तियाँ ही ठीक हैं
ए.आर.साहिल "अलीग"
नज़्म
हिण्डोला
यहीं तुलू हुईं और यहीं ग़ुरूब हुईं
इसी ज़मीन से उभरे कई उलूम-ओ-फ़ुनून