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ग़ज़ल
इक मुट्ठी तारीकी में था इक मुट्ठी से बढ़ कर प्यार
लम्स के जुगनू पल्लू बाँधे ज़ीना ज़ीना उतरी मैं
किश्वर नाहीद
नज़्म
अलबेली सुब्ह
शलूका पहने हुए गुलाबी हर इक सुबुक पंखुड़ी चमन में
रंगी हुई सुर्ख़ ओढ़नी का हवा में पल्लू सुखा रही है
जोश मलीहाबादी
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नज़्म
क्या गुल-बदनी है
सीने पे ये पल्लू है कि इक मौज-ए-हयाबी
माथा है कि इक सुब्ह का परतव है शहाबी
जोश मलीहाबादी
नज़्म
तू घर से निकल आए तो
आँखों को झुकाए हुए पल्लू को उठाए
मुखड़े पे लिए सुब्ह के मचले हुए साए
जोश मलीहाबादी
नज़्म
मुक़ाबला
ज़मीन का पल्लू पकड़ के अपनी तरफ़ उसे खींचता ही जाता है
मैं खिंचा जा रहा हू पल्लू समेत