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शम्सुर रहमान फ़ारूक़ी
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नज़्म
अलबेली सुब्ह
कली पे बेले की किस अदा से पड़ा है शबनम का एक मोती
नहीं ये हीरे की कील पहने कोई परी मुस्कुरा रही है
जोश मलीहाबादी
नज़्म
ख़ातून-ए-मशरिक़
छोड़ देती तकल्लुम को मुलाएम क़ील-ओ-क़ाल
इल्म का हद से गुज़र जाना है तौहीन-ए-जमाल