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नज़्म
अभी हम ख़ूबसूरत हैं
अब भी महबूब-ए-जहाँ है
शायरी शोरीद-गान-ए-इश्क़ के विर्द-ए-ज़बाँ है
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
हास्य
ज़ब्त के 'अज़्म का उस वक़्त असर कुछ न हुआ
या-हफ़ीज़ो का किया विर्द मगर कुछ न हुआ
अकबर इलाहाबादी
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नज़्म
शहर-बानो के लिए एक नज़्म
तुम्हें सुनता हूँ
तो मुझ को क़दीमी मंदिरों से घंटियों और मस्जिदों से विर्द की आवाज़ आती है