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ग़ज़ल
क्यूँ भटकती फिर रहे हैं आज अरबाब-ए-ख़िरद
क्या जुनूँ के रास्ते में आगही दीवार है
सय्यद मेराज जामी
ग़ज़ल
क्या हो गया इस दौर को अरबाब-ए-ख़िरद को
पड़ने लगे अक़्लों पे रिवायात के पत्थर
ज़हीरुन्निसा निगार
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नज़्म
दीवाली आई
क्या बताएँगे ये अरबाब-ए-ख़िरद अब मुझ को
ग़ैर सुग्रीव श्री-राम का क्या यार न था
कँवल डिबाइवी
ग़ज़ल
ऐसे इतराते हैं अरबाब-ए-ख़िरद ऐ 'मंशा'
उन के ही हाथों में तंज़ीम-ए-जहाँ है जैसे
मंशाउर्रहमान ख़ाँ मंशा
ग़ज़ल
छीना है सुकूँ दहर का अरबाब-ए-ख़िरद ने
हैं अहल-ए-जुनूँ मोरिद-ए-इल्ज़ाम अभी तक
मुहम्मद अय्यूब ज़ौक़ी
नज़्म
पछतावा
जिस से टकरा के गिरे थे कभी अरबाब-ए-ख़िरद
आओ नज़दीक से वो संग-ए-गिराँ देख आएँ