aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
परिणाम "اصطلاحیں"
अमीन अहसन इस्लाही
1904 - 1997
लेखक
मोहम्मद यूसुफ़ इस्लाही
शाकिर हुसैन इस्लाही
born.1979
शायर
अबुल्लैस नदवी इस्लाही
1913 - 1990
अबू सुफ़ियान इसलाही
सदरुद्दीन इस्लाही
1917 - 1998
मुख़्तार अहमद इस्लाही अलीग
अबू साद इसलाही
कलीम सिफ़ात इस्लाही
मोहम्मद मुरसलीन इस्लाही
ज़फ़रुल इस्लाम इसलाही
अनीस अहमद इसलाही
संपादक
मोहम्मद सुलतान शाह इसलाही
मोहम्मद आरिफ़ इस्लाही
नजमुद्दीन इसलाही
born.1897
जिन पर अब कोई मअ'नी नहीं उगतेबहुत सी इस्तेलाहें हैं
नशा आता है उर्दू बोलने मेंगिलौरी की तरह हैं मुँह लगी सब इस्तेलाहें
सेनडो ने कहा, “बड़े ख़ानाख़राब हैं, ये मंटो साहब। बड़े ख़ानाख़राब हैं... लाहौर की कोई ऐसी तवाइफ़ नहीं जिसके साथ बाबू साहब की कंटीन्युटली न रह चुकी हो।”बाबू गोपी नाथ ने ये सुन कर बड़े भोंडे इन्किसार के साथ कहा, “अब कमर में वो दम नहीं मंटो साहब।”
मोज़ूई तर्ज़-ए-फ़िक्र के ख़तरात की वज़ाहत चंदाँ ज़रूरी नहीं। चूँकि मोज़ूई मंतिक़ हर फ़र्द के एतबार से बदलती रहती है, इसलिए ऐन-मुमकिन है कि मैं किसी चीज़ को शे’र में “शायरी” का नाम दूं और दलील ये दूं कि मैं ऐसा महसूस करता हूँ तो जवाब ये मिले कि आप महसूस करते होंगे, हम तो नहीं करते। अगर मैं ये कहूं कि ग़ालिब का ये शे’र, महफ़िलें बरहम करे है गंजिंफ़ा बाज़ ख़्याल
جب کوئی کمینہ شخص کسی معزز آدمی سے برابری کا دعوی کرتا ہے، تو بعض وقت اس کو غصہ میں ہنسی آجاتی ہے، یہ ہنسی، رنج، غصہ اور عبرت کا گویا مجموعہ ہوتی ہے، فارسی میں اس ہنسی کو زہر خند کہتے ہیں، دارا پر سکندر کے خط سے جو حالت طاری ہوئی زہر خند کے لفظ کے سوا اور کسی طریقہ سے اس کی تصویر نہیں کھینچ سکتی تھی۔ اسی طرح خاص خاص محاورے اور اصطلاحیں، خاص خاص م...
ग़ज़ल एक अरबी शब्द है जिसका अर्थ है "महबूबसे बातें करना"। इस्तिलाः में ग़ज़ल शाइरी की उस सिन्फ़ को कहते हैं जिस में बह्र, क़ाफ़िया,और रदीफ़, की रिआयत की जाए। ग़ज़ल के पहले शेर को 'मतला' और आख़िरी शेर जिस में शायर अपना तख़ल्लुस इस्तिमाल करता है 'मक़्ता' कहते हैं।
महशर एक मज़हबी इस्तिलाह है ये तसव्वुर उस दिन के लिए इस्तेमाल होता है जब दुनिया फ़ना हो जाएगीगी और इन्सानों से उनके आमाल का हिसाब लिया जाएगा। मज़हबी रिवायात के मुताबिक़ ये एक सख़्त दिन होगा। एक हंगामा बर्पा होगा। लोग एक दूसरे से भाग रहे होंगे सबको अपनी अपनी पड़ी होगी। महशर का शेरी इस्तेमाल उस के इस मज़हबी सियाक़ में भी हुआ है और साथ ही माशूक़ के जल्वे से बर्पा होने वाले हंगामे के लिए भी। हमारा ये इन्तिख़ाब पढ़िए।
तंज़ के साथ उमूमन मिज़ाह का लफ़्ज़ जुड़ा होता है क्यूँ कि गहरा तंज़ तभी क़ाबिल-ए-बर्दाश्त और एक मानी में इस्लाही होता है जब उस का इज़हार इस तौर पर किया जाए कि उस के साथ मिज़ाह का उन्सिर भी शामिल हो। तंज़िया पैराए में एक तख़्लीक़-कार अपने आस पास की दुनिया और समाज की ना-हमवारियों को निशाना बनाता है और ऐसे पहलुओं को बे-नक़ाब करता है जिन पर आम ज़िंदगी में नज़र नहीं जाती और जाती भी है तो उन पर बात करने का हौसला नहीं होता।
इस्तेलाहेंاصطلاحیں
terminologies
Quran Ki Char Bunyadi Istilahen
सय्यद अबुल आला मोदूदी
इस्लामियात
Aadab-e-Zindagi
Tasawwuf Ki Haqeeqat Aur Uska Falsafa-e-Tareekh
शाह वलीउल्लाह मोहद्दिस देहलवी
सूफ़ीवाद / रहस्यवाद
Makhzan-e-Tasawwuf
अब्दुर रहमान हया
समा और अन्य शब्दावलियाँ
असली जवाहिर-ए-ख़मसा कामिल
शाह मोहम्मद गौस ग्वालियारी
फरहंग-ए-अदबी इस्तिलाहात
कलीमुद्दीन अहमद
भाषा
Kashf-ul-Mahjoob
Shaikh Ali Hujweri
इल्म-ए-लदुन्नी
Farhang Istilahat-e-Falsafa
शब्द-कोश
Waza-e-Istilahat
सय्यद वहीदुद्दीन सलीम
नॉन-फ़िक्शन
Quran Ki Char Buniyadi Istilahain
Tahqeeq Aur Usool-e-Waza-e-Istilahat Par Muntakhab Maqalat
एजाज़ राही
अनुसंधान क्रियाविधि
Adabi Istilahat
अनवर जमाल
Istilahat-e-Naqd-o-Adab
उमर फ़ारूक़
इस्लाह-उन-निसा
रशीद-उन-निसा
नीतिपरक
नैरोबी, "बे-शक आम शायरों के हाँ और मामूली इंसानों के नज़दीक हुस्न-ओ-जमाल का मफ़हूम वही है जो तुमने अभी ज़ाहिर किया। लेकिन मैं तो उन लोगों में हूँ जो सूरत से ज़ियादा अदा को देखते हैं। जो आज़ा के हुस्न से ज़ियादा अत्वार की दिल-फ़रेबी पर फ़रेफ़्ता होते हैं और ग़ालिबन यही वो चीज़ है जो तुझ में ब-दर्जा-ए-कमाल पाई जाती है।"दुर्दाना, "अदा! अत्वार! आह, शायरों और आशिक़ों की इस्तिलाहें समझना भी किस क़दर दुश्वार है। आप यक़ीन कीजिये कि मेरा ज़ह्न इन दोनों के मफ़हूम से भी बिल्कुल ख़ाली है और शायद मैं कभी न समझ सकूँगी कि इनका हक़ीक़ी मतलब क्या है। क्योंकि इससे क़ब्ल भी बारहा जब मैंने शायरों के कलाम पर ग़ौर किया तो मैं बा-वजूद कोशिश के कभी न समझ सकी कि अदा और उसके साथ बहुत से अलफ़ाज़ मसलन ग़मज़ा, करिश्मा, इश्वा, नाज़, तेवर, चितवन, बाँकपन, फबन वग़ैरा किसे कहते हैं और इनमें क्या फ़र्क़ है। आपने अभी अदा और अत्वार का ज़िक्र किया। इसलिये क्या मैं पूछ सकती हूँ कि अगर आपने मेरे अंदर इन बातों को देख कर मोहब्बत की है तो ये चीज़ें मुझमें कहाँ हैं?"
اکبر، ان دلبران سیاسی کی ایک ایک ادا کے محرم تھے۔ ان اسرار کی منادی وہ سر بازار کرتے لیکن زبان وہی اپنی، اور مخصوص جو لوگ ان کی اس بولی سے واقف ہو گئے تھے، وہ معنی و مفہوم کو سمجھ کر چشم و ابرو کو جنبش دیتے، اور جوتہ تک نہ پہنچتے۔ وہ بھی بہر حال ایک دل لگی کی بات سمجھ کر ہنس تو پڑتے ہی تھے۔ ’’بت‘‘، صنم‘‘، ’’مس‘‘، ’’شیخ‘‘، ’سید‘‘، ’’سید صاحب‘‘، ’’او...
لیکن یہاں یہ مشکل ہے کہ ہر قسم کے شعر کے ساتھ مختلف طرح کی توقعات وابستہ ہو گئی ہیں اور قاری ان توقعات کی روشنی میں ہی ہر تخلیق کے ساتھ معاملہ کرتا ہے۔ احتشام صاحب مرحوم نے اپنی ایک یاس آلودغزل کو اسی لیے ’’بہ یاد ویت نام‘‘ کا عنوان دے دیا تھا کہ قاری اسے ان توقعات کی روشنی میں نہ پڑھے جو غزل کے ساتھ وابستہ ہیں اور جن کی روشنی میں وہ تخلیق غیر ترق...
“तो आपने हमको ढूंढ निकाला?”मुझे उस की आवाज़ शिकस्ता मछली के खुले होई मुँह से आती मालूम हुई। वो फिर अपने काम की तरफ़ मुतवज्जा हो गया।
ناول نگاری کافی دنوں تک اعتبار فن سے محروم رہی لیکن بورژوا نظام کے عروج نے اس کے آرٹ کی حصار بندی کی۔ ناول اور حقیقت نگاری کے ضمن میں لکھتے ہوئے رالف فاکس نے اس طرف بھی خاصی توجہ دی ہے۔ فن ناول نگاری کو موجودہ صورت و سیرت اور ہیئت تک پہنچنے میں ارتقا کی کئی منازل سے گزرنا پڑا ہے جن سے چشم پوشی نہیں کی جاسکتی۔ ناول ایک نثری صنف ادب ہے جو قصہ گوئی ک...
آریوں کا اصل وطن ایشیا اور یورپ کا وہ مشترک خطہ قرار دیا جاتا ہے جو یورال اور بحیرہ کیسپن سے وادی ڈینوب تک پھیلا ہوا ہے۔ یہیں ان کے قافلے اپنی زبانوں کے ساتھ جنوبی یورپ اور ایران کی طرف گئے۔ ایران میں وہ کتنے دنوں تک رہے اس کے متعلق یقینی معلومات نہیں۔ منتشر ہونے سے پہلے ان کی زبان جسے محض آریائی بھی کہہ سکتے ہیں، جدید لسانی اصطلاح میں ہند یورپی ...
रिआयत कसीर-उल-इत्लाक़ इस्तिलाह है। अलफ़ाज़ के माबैन माअनवी इलाक़े का इल्तिबास हो, या बा’ज़ सनअतें हों, मसलन ईहाम तज़ाद, ईहाम सौत, ईहाम तनासुब, लफ़-ओ-नशर की बा’ज़ सूरतें, ज़िला जगत, ये सब रिआयत के तहत आती हैं। रिआयत की वजह से हमेशा कलाम में हुस्न पैदा होता है। जो शख़्स रिआयत को नहीं समझता, या उसे ग़ैर अहम समझता है, या जिसे रिआयत में लुत्फ़ नहीं आता, उसे क्ला...
अब फ़र्ज़ कीजिए कि इस मिसरे की रोशनी में ग़ालिब की मुहमलियत का मसला दो शख्सों के सामने दरपेश है। दोनों साहिब-ए-ज़ौक़ और साहिब-ए-फ़हम क़ारी के नज़रिए पर ईमान रखते हैं। उनमें से एक जो सर कर्दन से नावाक़िफ़ है, झट कह देगा कि ग़ालिब निहायत मोहमलगो थे क्योंकि साहिब-ए-ज़ौक़ लोग भी अफ़सान-ए-ज़ुल्फ़-ए-यार सर कर को नहीं समझ पाते कि ये है क्या बला? दूसरा कहेगा आप ग़लत कह...
ब्रश तज़बज़ुब में है कि कौन रंग भरे। नाम को छोड़िए मज़हब को लीजिए। हिंदू कल्चर में डूबा हुआ घर बेटे को इसी रंग में रंगेगा। इस्लामी कल्चर का फ़र्ज़ंद ज़रूर मुसलमान होगा। या'नी माँ बाप की यही ख़्वाहिश होती है। मगर ये तो बड़ी अ'जीब सी बात हुई कि आपने पच्चीस बरस तक अपने फ़र्ज़ंद को एक अपने ही पुराने ढर्रे पर चलाने की कोशिश की। और इसके बा'द यकायक ख़यालात ने जो प...
اقبالؔ اس تحریک کے پس منظر میں سمجھے جا سکتے ہیں جو ہمارے ادب میں سر سید اور ان کے رفقاء سے شروع ہوئی۔ سر سید کی تحریک اس رو کی موج ہے جو بنگال میں راجہ رام موہن رائے اور ان کے ساتھیوں نے شروع کی۔ جدید اسکالر اسے ایک نامکمل تحریک کہتے ہیں کیونکہ یہ بہت جلد ملازمتوں اور حقوق کے چکر میں گرفتار ہوگئی مگراس کے دور رس اثرات سے انکار نہیں کیا جا سکتا۔ تہ...
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