aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
परिणाम "باغیچے"
रईस बाग़ी
शायर
समीना बाग़चा बान
लेखक
परवेज़ बाग़ी
आर. आशीश बाग़्ची
अमजद बाग़ी
संपादक
मुशताक़ मसरूर बारिचो
Jabbar Baghcha ban
जबरा ने दुम हिलाई। “अच्छा आओ, इस अलाव को कूद कर पार करें। देखें कौन निकल जाए है। अगर जल गए बच्चा तो मैं, दवा न करूँगा।”...
रफ़्ता-रफ़्ता दूसरे लोग भी इस बस्ती में आने शुरू’ हुए। चुनाँचे शह्र के बड़े-बड़े चौकों में तांगे वाले सदाएँ लगाने लगे, “आओ, कोई नई बस्ती को” शह्र से पाँच कोस तक जो पक्की सड़क जाती थी उस पर पहुँच कर ताँगे वाले सवारियों से इनआ’म हासिल करने के लालच में...
दाऊ जी ने मुस्कुरा कर कहा, "जो तवीले के एक ख़र को ऐसा बना दे कि लोग कहें ये मुंशी चिंत राम जी हैं। वो मसीहा न हो, आक़ा न हो तो फिर क्या हो?" मै चारपाई के कोने से आहिस्ता आहिस्ता फिसल कर बिस्तर में पहुंच गया और चारों...
लड़की अपने बाप की इन बातों से परेशान हो जाती है और अच्छा, अच्छा कहती वहां से चलती है, लेकिन फ़ौरन ही चिरंजी उसको रोकता है और जेब से बर्फ़ी निकाल कर उसको देता है और कहता है, “पहला दिन है मुँह मीठा कर लो।” ज़बरदस्ती वो अपनी लड़की के...
आशा ने फ़ौरन हाथ धोए और बड़ी मसर्रत आमेज़ तेज़ी से लाला जी के साथ जाकर गमलों को देखने लगी। आज उसके चेहरे पर ग़ैरमा’मूली शगुफ़्तगी नज़र आरही थी, उसके अंदाज़-ए-गुफ़्तुगू में भी दिल-आवेज़ शीरीनी थी। लाला जी की सारी ख़िफ़्फ़त ग़ायब हो गई। आज उसकी बातें ज़बान से नहीं...
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रईस अहमद जाफ़री
नॉवेल / उपन्यास
उस वक़्त सूरज का अ’क्स दरिया में डूब रहा था। सैर करने वाले चहचहा रहे थे। इतने में गिरजे की यक-आहंग घंटियां बजने लगीं। मैं उस वक़्त क़ुदरत की दिल-फ़रेबियों से इस क़दर मस्हूर हो चुका था कि विल्सन को अपनी तरफ़ आते न देख सका। जब वो मेरे पास...
शायद सामने का दरीचा खुला हुआ था। उसमें ठंडी निकहत बेज़ हवा के झोंके कमरे में आ रहे थे। रात की चिड़ियाँ बग़ीचे में सुबुक दिली से सीटियाँ बजा रही थीं मगर नहीं... न रंगीन फूलों को देख सकती थी जिनसे मुझे मोहब्बत थी, न ख़ुश गुलू परिंदों को जिनसे...
मुन्ने ने आहिस्ता से इस्बात में सर हिला दिया। फिर दोनों हाथ फैला कर बोला, “मुझे अपनी गोद में उठा लो और मेरे घर चलो। तुमको वो तस्वीर दिखाता हूँ।” वक़ार हुसैन ने झुक कर बच्चे को अपनी गोद में उठा लिया। बच्चा बड़े आराम से उसके सीने से लग...
पतझड़ का मौसम शुरू हो चुका था। बेगम बिल्क़ीस तुराब अली हर साल की तरह अब के भी अपने बँगले के बाग़ीचे में माली से पौदों और पेड़ों की काँट छांट करा रही थीं। उस वक़्त दिन के कोई ग्यारह बजे होंगे। सेठ तुराब अली अपने काम पर और लड़के-लड़कियां...
अलिफ़: इजाज़त हो तो... ग़ालिब: अच्छा तो पूछ लो, मगर जल्दी करना, क्योंकि अभी तक यक-जान बे नवाए असद को हज़ारों आफ़तें झेलनी हैं... मैं दश्त-ए-ग़म में आहूए सय्याद दीदा हूँ।...
गूँगी का काम ख़त्म हो चुका था लेकिन अभी उसका मक़्सद पूरा नहीं हो सकता था। दीपक अपने वतन में था और ज्योती उसकी आमद का इंतिज़ार करने लगी। दीपक आ गया। उसे देखते ही गूँगी का दिल धड़कने लगा... वो अपनी ख़्वाबगाह में चली गई। फिर उसने तस्वीर उठाई...
कोई खिड़की नहीं खुलती किसी बाग़ीचे मेंसाँस लेना भी है दुश्वार कहीं और चलें
रात बाग़ीचे पे थी और रौशनी पत्थर में थीइक सहीफ़े की तिलावत ज़ेहन-ए-पैग़मबर में थी
सारे बाग़ीचे में फैली हुई निकली हैं जड़ेंबरसों पाले हुए रिश्ते की तरह
"एक बदनसीब माँ क्या महारानी के दरबार से मायूस हो कर जाएगी?" ये कहते कहते सुजाता की आँखें आबगूं हो गईं। महारानी का गु़स्सा कुछ ठंडा हुआ। मगर वो महाराजा के मिज़ाज से वाक़िफ़ थीं। इस वक़्त वो कोई सिफ़ारिश न सुनेंगे। इसलिए महारानी कोई वादा करके शर्मिंदगी की ज़िल्लत...
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