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ग़ज़ल
सोचों के बन-बास में आख़िर कुछ तो सूझ ही जाएगा
ये रस्तों का पेच-ओ-ख़म ख़ुद मंज़िल भी दिखलाएगा
सज्जाद हैदर
ग़ज़ल
तुम से बिछड़ के हँसता-गाता शहर लगा बन-बास मुझे
नागिन बन कर डसता है तन्हाई का एहसास मुझे
जलीस नजीबाबादी
ग़ज़ल
फिर बन-बास का मौसम आया फिर तहज़ीब के पंख जले
फिर इंसान की मिट्टी सोई फिर बन-मानुस जाग उठे