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नज़्म
बे-नूर काएनात में इक काँच का चराग़
बे-नूर काएनात में इक काँच का चराग़
काफ़ी है शश-जिहात में इक काँच का चराग़
नासिरा ज़ुबेरी
ग़ज़ल
जैसे जैसे शाम ये बे-नूर होती जा रही है
ये तबी'अत बिन पिए मख़मूर होती जा रही है
असद बिजनौरी अलीग
ग़ज़ल
चाहे बे-नूर हों आँखों से भी ख़ुश होते हैं
हम तो बू-जहल के फ़तवों से भी ख़ुश होते हैं
नोमान शौक़
ग़ज़ल
ग़ैरत-ए-रुख़ से हुआ है तिरे बे-नूर चराग़
तू जो हो पास तो क्यूँकर न करूँ दूर चराग़