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ग़ज़ल
जो उट्ठे हैं तो गर्म-ए-जुस्तुजू-ए-दोस्त उट्ठे हैं
जो बैठे हैं तो महव-ए-आरज़ू-ए-यार बैठे हैं
आज़ाद अंसारी
ग़ज़ल
तुम्हें मैं चूम लूँ छू लूँ ज़रा इक शर्म है वर्ना
ये सारी जुस्तुजुएँ हद्द-ए-इम्कानी में रहती हैं
आशू मिश्रा
ग़ज़ल
कभी उट्ठे तो गर्म-ए-जुस्तुजू-ए-दोस्त में उट्ठे
कभी बैठे तो महव-ए-आरज़ू-ए-यार बैठे हैं
अल-हाज अल-हाफीज़
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नज़्म
ख़्वाब जो बिखर गए
ख़ुशा वो दौर-ए-बे-ख़ुदी कि जुस्तुजू-ए-यार थी
जो दर्द में सुरूर था तो बे-कली क़रार थी
आमिर उस्मानी
ग़ज़ल
मआल-ए-जुस्तुजू-ए-शौक़-ए-कामिल देख लेता हूँ
उठाते ही क़दम आसार-ए-मंज़िल देख लेता हूँ
शकील बदायूनी
ग़ज़ल
इज़्तिराब-ए-उम्र बे-मतलब नहीं आख़िर कि है
जुसतुजू-ए-फ़ुर्सत-ए-रब्त-ए-सर-ए-ज़ानू मुझे