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ग़ज़ल
पिएँगे आज मस्जिद ही सही मय-ख़ाना हो जाए
जनाब-ए-शैख़ का ज़र्फ़-ए-वज़ू पैमाना हो जाए
फ़ज़ल हुसैन साबिर
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ग़ज़ल
अगर काबे का रुख़ भी जानिब-ए-मय-ख़ाना हो जाए
तो फिर सज्दा मिरी हर लग़्ज़िश-ए-मस्ताना हो जाए
बेदम शाह वारसी
ग़ज़ल
ये है मय-ख़ाना अदब लाज़िम है ये मस्जिद नहीं
दैर से आए सफ़-ए-अव्वल में शामिल हो गए