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ग़ज़ल
तौहीद तो ये है कि ख़ुदा हश्र में कह दे
ये बंदा दो-आलम से ख़फ़ा मेरे लिए है
मौलाना मोहम्मद अली जौहर
ग़ज़ल
देख कर नज़म-ए-दो-आलम हमें कहना ही पड़ा
ये सलीक़ा है कसे अंजुमन-आराई का
मिर्ज़ा मोहम्मद हादी अज़ीज़ लखनवी
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लेख
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