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ग़ज़ल
नई शमएँ जलाओ आशिक़ी की अंजुमन वालो
कि सूना है शबिस्तान-ए-दिल-ए-परवाना बरसों से
अब्दुल मजीद सालिक
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ग़ज़ल
समझ में कुछ नहीं आता कि ये क्या राज़ है यारो
मिज़ाज-ए-शम्अ से क्यों कर दिल-ए-परवाना मिलता है