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नज़्म
बेवा की जवानी
बे-लौस मोहब्बत का सिला दाइमी फ़ुर्क़त
ऐ साहब-ए-इंसाफ़ ये इंसाफ़ कहाँ है
द्वारका दास शोला
नज़्म
बेवा की ख़ुद-कुशी
वाँ सब अहल-ए-दर्द हैं सब साहब-ए-इंसाफ़ हैं
रहबर आगे जा चुका राहें भी तेरी साफ़ हैं
कैफ़ी आज़मी
समस्त
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ग़ज़ल
दा'वा-ए-अम्न करें हाथ में चाक़ू रक्खें
और हमें दर्स कि जज़्बात पे क़ाबू रक्खें
हुसैन अहमद वासिफ़
लेख
मिर्ज़ा फ़रहतुल्लाह बेग
ग़ज़ल
भरने लगता है कोई ज़ख़्म तो जब पूछते हैं
लोग यूँ तुझ से बिछड़ने का सबब पूछते हैं