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इब्न-ए-इंशा
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अब्दुल माजिद दरियाबादी
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शम्सुर रहमान फ़ारूक़ी
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ग़ज़ल
ऐ 'ज़फ़र' लिख तू ग़ज़ल बहर ओ क़वाफ़ी फेर कर
ख़ामा-ए-दुर-रेज़ से हैं अब गुहर-बारी में हम
बहादुर शाह ज़फ़र
नज़्म
नज़्म क्या है
वज़्न नज़्म-ए-मुअर्रा में है दोस्तो
इस को तुम बे-रदीफ़-ओ-क़वाफ़ी कहो
हाफ़िज़ कर्नाटकी
ग़ज़ल
एक ढब के जो क़्वाफ़ी हैं हम उन में 'इंशा'
इक ग़ज़ल और भी चाहें तो सुना सकते हैं
इंशा अल्लाह ख़ान इंशा
ग़ज़ल
कह ब-तब्दील-ए-क़वाफ़ी ग़ज़ल इक और भी 'ज़ौक़'
देखें बिठलाए है किस तरह से तू टूट गए