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नज़्म
सुब्ह-ए-आज़ादी (अगस्त-47)
पुकारती रहीं बाहें बदन बुलाते रहे
बहुत अज़ीज़ थी लेकिन रुख़-ए-सहर की लगन
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
दो इश्क़
हर सुब्ह की लौ तीर सी सीने में लगी है
तन्हाई में क्या क्या न तुझे याद किया है
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
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