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ग़ज़ल
हिजाब-ए-राज़ फ़ैज़-ए-मुर्शिद-ए-कामिल से उठता है
नज़र हक़-आश्ना होती है पर्दा दिल से उठता है
शेर सिंह नाज़ देहलवी
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ग़ज़ल
जो मुर्शिद-ए-कामिल है वो ख़ुर्शीद के मानिंद
बख़्शे है मुरीदों को ज़िया कुछ नहीं कहता
मोहन सिंह दीवाना
ग़ज़ल
यक़ीनन मुर्शिद-ए-कामिल की शफ़क़त का नतीजा है
हवस के जाल में 'लाग़र' कभी आया नहीं अब तक
ओम प्रकाश लाग़र
ग़ज़ल
साहिब-ए-दिल है वही मुर्शिद-ए-कामिल है वही
मेरे चेहरे से जो मेरा ग़म-ए-पिन्हाँ समझा