aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
परिणाम "مطالعہ"
साज़मान मुताला, तेहरान
पर्काशक
इदारा फ़रोग़-ए-मुताला, लाहौर
अल-मारिफ़ दारुल मोताला, मऊ
मरकज़ तहक़ीक़ मुताला-ए-इसलामी, जमशेदपुर
इदारा बरा-ए-मुताला व तहक़ीक़ तारीख़-ए-दकन, शोलापुर
मतबूआ-ए-दारुत-तबा सरकार-ए-आली
मतबूआ रिफ़ाह-ए-आम स्टीम प्रेस, लाहौर
मतबुआ शाहीन प्रेस, पेशावर
मतबूआ सनाई बर्क़ी प्रेस, अमृतसर
मतबूआ अलीमी प्रेस, दिल्ली
गंगा-पुस्लकमाला-कार्यालय, लखनऊ
इदारा मुतालआत-ए-ग़ालिब, श्रीनगर
मतबूआ साधू प्रेस, दिल्ली
मतबूआ मतबा, अकबराबाद
मतबूआ दारुत्तबाअत, हैदराबाद
दरियाए किशनगंगा के किनारे इस सड़क के लिए जो मुज़फ़्फ़राबाद से करन जाती है। कुछ अर्से से लड़ाई हो रही थी... अजीब-ओ-गरीब लड़ाई थी। रात को बा'ज़ औक़ात आसपास की पहाड़ियां फ़ायरों के बजाय गंदी-गंदी गालियों से गूंज उठती थीं।एक मर्तबा सूबेदार रब नवाज़ अपनी प्लाटून के जवानों के साथ शब ख़ून मारने के लिए तैयार हो रहा था कि दूर नीचे एक खाई से गालियों का शोर उठा। पहले तो वो घबरा गया। ऐसा लगता था कि बहुत से भूत मिल कर नाच रहे हैं और ज़ोर-ज़ोर के क़हक़हे लगा रहे हैं, वो बड़बड़ाया, “ख़िनज़ीर की दुम... ये क्या हो रहा है।”
लेकिन इससे भी घर वाले मुतअस्सिर न हुए। उनके रूपये से मुझे फौरन एहसास हुआ कि एक रूपये और दो रुपये के बजाए आठ-आना और एक रूपये कहना चाहिए था।इन्हीं नाकाम कोशिशों में ता’तीलात गुज़र गयीं और हमने फ़िर मामूँ की चौखट पर आकर सजदा किया।
कुत्ता दुम हिलाता हरनाम सिंह के पास चला गया और ये समझ कर कि शायद कोई खाने की चीज़ फेंकी गई है, ज़मीन के पत्थर सूँघने लगा। जमादार हरनाम सिंह ने थैला खोल कर एक बिस्कुट निकाला और उसकी तरफ़ फेंका। कुत्ते ने उसे सूंघ कर मुँह खोला, लेकिन हरनाम सिंह ने लपक कर उसे उठा लिया, “ठहर। कहीं पाकिस्तानी तो नहीं!”
वो चटाई बिछाए कोई किताब पढ़ रहे होते। मैं आहिस्ता से उनके पीछे जा कर खड़ा हो जाता और वो किताब बंद कर के कहते, "गोलू आ गया" फिर मेरी तरफ़ मुड़ते और हंस कर कहते, "कोई गप सुना" और मैं अपनी बिसात के और समझ के मुताबिक़ ढूंढ ढांड के कोई बात सुनाता तो वो ख़ूब हंसते। बस यूँ ही मेरे लिए हंसते हालाँ कि मुझे अब महसूस होता है कि वो ऐसी दिलचस्प बातें भी न होती थीं, ...
ठाकुर साहब के दो बेटे थे। बड़े का नाम सिरी कंठ सिंह था। उसने एक मुद्दत-ए-दराज़ की जानकाही के बाद बी.ए. की डिग्री हासिल की थी। और अब एक दफ़्तर में नौकर था। छोटा लड़का लाल बिहारी सिंह दोहरे बदन का सजीला जवान था। भरा हुआ चेहरा चौड़ा सीना भैंस का दो सेर ताज़ा दूध का नाश्ता कर जाता था। सिरी कंठ उससे बिल्कुल मुतज़ाद थे। इन ज़ाहिरी ख़ूबियों को उन्होंने दो अंग्रे...
अल्लामा इक़बाल के जन्मदिन के अवसर पर उनके साहित्यिक कार्यों का अध्ययन करें
लेख मक़ालात
शायर,पत्रकार और गीतकार। ग़ुलाम बेगम बादशाह और झाँसी की रानी जैसी फ़िल्मों के संवाद लेखक
मुतालेए'مطالعہ
study
मुतालाمطالعہ
Urdu Shairi Ka Tanqeedi Mutalia
सुंबुल निगार
आलोचना
Urdu Dastan
सुहैल बुख़ारी
फ़िक्शन तन्क़ीद
Kai Chand The Sar-e-Aasman
रशीद अशरफ़ ख़ान
नॉवेल / उपन्यास तन्क़ीद
Aurat
सिमोन द बोउआर
सामाजिक मुद्दे
मार्कसिज़्म एक मुताअला
ज़फर इमाम
ग़ज़ल और मुताला-ए-ग़ज़ल
इबादत बरेलवी
शायरी तन्क़ीद
उर्दू सफ़रनामों का तंक़ीदी मुताला
ख़ालिद महमूद
सफ़र-नामा / यात्रा-वृतांत
इक़बाल की तवील नज़्में
रफ़ीउद्दीन हाश्मी
शायरी
Aurat Ek Nafsiyati Mutala
अनुवाद
Urdu Novel Ka Samaji Aur Siyasi Mutala
नगीना जबीं
Noon Meem Rashid: Ek Mutala
जमील जालिबी
नज़्म तन्क़ीद
Adab Ka Mutala
अतहर प्रवेज़
Urdu Shairi Ka Tanqeedi Mutala
Urdu Drama: Tanqeedi Aur Tajziyati Mutala
वक़ार अज़ीम
Urdu Mukhtasar Afsana: Fanni-o-Takniki Mutala
निगहत रेहाना ख़ान
अफ़साना तन्क़ीद
ये सुनकर वो खिलखिला कर हंस पड़ी, “आपके हैट ने तो ख़ूब लुढ़कनियां खाई होंगी।”“आप हंसती क्यों हैं? किसी को गिरते देख कर आपकी तबीयत इतनी शाद क्यों होती है और जो किसी रोज़ आप गिर पड़ीं तो... वो घड़ा जो हर रोज़ शाम के वक़्त आप घर ले जाती है किस बुरी तरह ज़मीन पर गिर कर टुकड़े टुकड़े हो जाएगा।”
सामने वाली बिल्डिंग का एक कमरा... ये कमरा पुरतकल्लुफ़ तरीक़े से सजा हुआ है। एक लड़की और एक लड़का जिसकी उम्र में तक़रीबन दो बरस का फ़र्क़ है, लड़की छः बरस की और लड़का आठ बरस का है। दोनों अपने बाप के पास बैठे हैं और उससे खेल रहे हैं। इतने में दरवाज़े पर हौले-हौले दस्तक होती है। पहली बार जब दस्तक होती है तो बच्चों का बाप नहीं सुनता। जब दूसरी बार फिर होती है...
एक दिन मिर्ज़ा साहब और मैं बरामदे में साथ साथ कुर्सियाँ डाले चुप-चाप बैठे थे। जब दोस्ती बहुत पुरानी हो जाए तो गुफ़्तुगू की चंदाँ ज़रूरत बाक़ी नहीं रहती और दोस्त एक दूसरे की ख़ामोशी से लुत्फ़-अंदोज़ हो सकते हैं। यही हालत हमारी थी। हम दोनों अपने-अपने ख़्यालात में ग़र्क़ थे। मिर्ज़ा साहब तो ख़ुदा जाने क्या सोच रहे थे। लेकिन मैं ज़माने की ना-साज़गारी पर ग़ौर क...
आसमाँ तेरी चाल किया जानेये शे’र गाने की ख़ास वजह ये थी। इस चोबी मकान के रहने वाले इस ग़लतफ़हमी में मुब्तला थे कि मेरे और वज़ीर के तअ’ल्लुक़ात अख़लाक़ी नुक़्त-ए-निगाह से ठीक नहीं, हालाँकि वो अख़लाक़ के मआ’नी से बिल्कुल नाआशना थे। ये लोग मुझ से और शब्बीर से बहुत दिलचस्पी लेते थे और मेरी नक़ल-ओ-हरकत पर ख़ासतौर पर निगरानी रखते थे।
पूछने लगे, "तुमने कोई बर्नार्ड शा की किताब पढ़ी है क्या?"मैंने कहा, "नहीं!"
निहायत आहिस्ता-आहिस्ता बड़े सुकून से, बड़ी मश्शाक़ी से वो भुट्टे को हर तरफ़ से देख देखकर उसे भूनता था, जैसे वो बरसों से इस भुट्टे को जानता था। एक दोस्त की तरह वो भुट्टे से बातें करता, उतनी नरमी और मेहरबानी और शफ़क़त से उससे पेश आता गोया वो भुट्टा उसका अपना रिश्तेदार या सगा भाई था। और लोग भी भुट्टा भूनते थे मगर वो बात कहाँ। इस क़दर कच्चे बद-ज़ाइक़ा और मामूल...
यूं तो मंटो को मैं इस की पैदाइश ही से जानता हूँ। हम दोनों इकट्ठे एक ही वक़्त 11 मई सन 1912ई. को पैदा हुए लेकिन उसने हमेशा ये कोशिश की कि वो ख़ुद को कछुआ बनाए रखे, जो एक दफ़ा अपना सर और गर्दन अंदर छुपा ले तो आप लाख ढूंढ़ते रहें तो इस का सुराग़ न मिले। लेकिन मैं भी आख़िर उस का हमज़ाद हूँ मैंने उस की हर जुंबिश का मुताला कर ही लिया।लीजिए अब मैं आपको बताता हूँ कि ये ख़रज़ात अफ़साना निगार कैसे बना? तन्क़ीद निगार बड़े लंबे चौड़े मज़ामीन लिखते हैं। अपनी हमा-दानी का सबूत देते हैं। शोपन हावर, फ्राइड, हीगल, नित्शे, मार्क्स के हवाले देते हैं मगर हक़ीक़त से कोसों दूर रहते हैं।
बोले, “ ज़रा…वो मैं… मैं डिस्टर्ब होता हूँ।”बस साहब। हम में जो मौसीक़ियत की रूह पैदी हुई थी फ़ौरन मर गई। दिल ने कहा, “ओ ना-बकार इंसान। देख! पढ़ने वाले यूँ पढ़ते हैं।” साहब ख़ुदा के हुज़ूर में गिड़-गिड़ा कर दुआ मांगी कि, “ ख़ुदाया हम भी अब बाक़ायदा मुता’ला शुरू करने वाले हैं। हमारी मदद कर और हमें हिम्मत दे।”
लेकिन ज़ाहिर है कि ऐसा नहीं। यक़ीनन शे’र में ऐसे ख़साइस हैं जो नस्र में नहीं पाए जाते और अगर शे’र की तारीफ़ या तहसीन इन इस्तलाहों के ज़रिए की जाती है या की जाये जिनका इतलाक़ नस्र पर भी हो सकता है, तो ये तन्क़ीद की कमज़ोरी है। अब इसे क्या कीजिए कि न सिर्फ़ उर्दू तन्क़ीद, बल्कि बेशतर तन्क़ीद, शे’र के गिर्द तवाफ़ तो करती रही है, लेकिन उसे छूने, टटोलने और इसके...
मियाँ साहब: हाँ, मुझे आपकी सोशल ऐक्टिविटीज़ का इल्म होता रहता है। फ़ुर्सत मिले तो कभी अपनी वो तक़रीरें भिजवा दीजिएगा जो पिछले दिनों आप ने मुख़्तलिफ़ मौक़ों पर की हैं... मैं फ़ुर्सत के औक़ात में उनका मुतालेआ’ करना चाहता हूँ। बेगम साहिबा: बहुत बेहतर।
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