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ग़ज़ल
जल्वे बेताब थे जो पर्दा-ए-फ़ितरत में 'जिगर'
ख़ुद तड़प कर मिरी चश्म-ए-निगराँ तक पहुँचे
जिगर मुरादाबादी
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नज़्म
दिल हसीं है तो मोहब्बत भी हसीं पैदा कर
रूह-ए-आदम निगराँ कब से है तेरी जानिब
उठ और इक जन्नत-ए-जावेद यहीं पैदा कर
जिगर मुरादाबादी
नज़्म
हाल-ओ-मक़ाम
दिल ज़िंदा-ओ-बे-दार अगर हो तो ब-तदरीज
बंदे को 'अता करते हैं चश्म-ए-निगराँ और
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
नाकामी
वही गेसू मिरी रातों पे हैं बिखरे बिखरे
वही आँखें मिरी जानिब निगराँ हैं अब तक
साहिर लुधियानवी
ग़ज़ल
ये लुत्फ़ तो देखो कि वो महफ़िल में मिरी सम्त
निगराँ हैं कि जैसे मुझे पहचान रहे हैं