aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
परिणाम "ویسے"
जी. एच. वेस्टकोट
1862 - 1928
लेखक
इंस्टीटूट ऑफ़ सेन्टरल एण्ड वेस्ट एशियन स्टडीज़ युनिवर्सिटी ऑफ़, कराची
पर्काशक
ईस्ट एण्ड वेस्ट लिमिटेड, लन्दन
ईस्ट वेस्ट पब्लिकेशन फ़ंड, हालैंड
वेस्ट ज़ोन कल्चर सेन्टर, उदयपुर
मकतबा अर-रिसाला, निज़ामुद्दीन वेस्ट, नई दिल्ली
गोर्नमेन्ट प्रिन्टिंग वेस्ट पाकिस्तान, लाहाैर
ताजदार-ए-हरम पब्लिशिंग कंपनी, वेस्ट बंगाल
वैसे तो तुम्हीं ने मुझे बरबाद किया हैइल्ज़ाम किसी और के सर जाए तो अच्छा
वैसे तो इक आँसू ही बहा कर मुझे ले जाएऐसे कोई तूफ़ान हिला भी नहीं सकता
वो शहर में था तो उस के लिए औरों से भी मिलना पड़ता थाअब ऐसे-वैसे लोगों के मैं नाज़ उठाऊँ किस के लिए
चला था ज़िक्र ज़माने की बेवफ़ाई कासो आ गया है तुम्हारा ख़याल वैसे ही
इंसानी ज़िंदगी की तमाम बहारें जद्द-ओ-जहद और मेहनत पर ही मुनहसिर होती हैं। इसी लिए कहा जाता है कि "जैसा बोना वैसा काटना" ये महावरा इंसानी तरीक़ा-ए-ज़िंदगी की इसी सच्चाई को वाज़ेह करता है। हमारे मुंतख़ब-कर्दा इन अशआर में मेहनत को ज़िंदगी गुज़ारने के एक उमूमी अमल के तौर पर भी मौज़ू बनाया गया है और उसे एक फ़लसफ़ियाना डिस्कोर्स के तौर पर भी बर्ता गया है। इन अशआर का एक मुस्बत पहलू ये भी है कि उन को पढ़ने से ज़िंदगी करने के अमल में मेहनत का हौसला पैदा होता है।
वैसेویسے
in that manner, like that
आईना-ए-वैसी
मोहम्मद मुतीउर्रहमान
शोध / समीक्षा
Glimpses of The East and West in Literature
नज़ीर सिद्दीक़ी
Iqbal's Concept Of Separate North-West Muslim State
शफ़ीक़ अली ख़ान
Jaisi Karni Waisi Bharni
सय्यद अहमद
नॉवेल / उपन्यास
Conflict of East and West in Turkey
हलिदे एदिब
East Faces West
कबीर एंड दि कबीर पन्थ
जीवनी
कब का रोगी हूँ वैसेशहर-ए-मसीहा लगता हूँ
चौराहे बाग़ बिल्डिंगें सब शहर तो नहींकुछ ऐसे वैसे लोगों से याराना चाहिए
तुझे है मश्क़-ए-सितम का मलाल वैसे हीहमारी जान थी जाँ पर वबाल वैसे ही
वैसे तो तुम्हीं ने मुझे बर्बाद किया हैइल्ज़ाम किसी और के सर जाए तो अच्छा
बिशन सिंह ने मरोंडों की पोटली ले कर पास खड़े सिपाही के हवाले कर दी और फ़ज़लदीन से पूछा, “टोबाटेक सिंह कहाँ है?”फ़ज़लदीन ने क़दरे हैरत से कहा, “कहाँ है... वहीं है जहां था।”
देर लगी आने में तुम को शुक्र है फिर भी आए तोआस ने दिल का साथ न छोड़ा वैसे हम घबराए तो
छातियां दूध की तरह सफ़ेद थीं... उनमें हल्का-हल्का नीलापन भी था। बग़लों के बाल मुंडे हुए थे जिसकी वजह से वहां सुरमई गुबार सा पैदा हो गया था।रणधीर उस लड़की की तरफ़ देख देख कर कई बार सोच चुका था... क्या ऐसा नहीं लगता जैसे मैंने अभी अभी कीलें उखेड़ कर उसको लकड़ी के बंद बक्स में से निकाला हो।
वैसे भी कौन सी ज़मीनें थींमैं बहुत ख़ुश हूँ आक़-नामे से
अब तो कुछ भी नहीं हूँ मैं वैसेकभी वो भी था मुब्तला मेरा
वैसे मैं ने दुनिया में क्या देखा हैतुम कहते हो तो फिर अच्छा देखा है
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