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मर्सिया
घर लूट ले बुग़्ज़-ओ-हसद-ओ-किज़्ब-ओ-रिया का
सर काट ले हिर्स-ओ-तमा-ओ-मकर-ओ-दग़ा का
मिर्ज़ा सलामत अली दबीर
ग़ज़ल
हश्र में पेश-ए-ख़ुदा फ़ैसला इस का होगा
ज़िंदगी में मुझे उस गब्र को तरसाने दो
मियाँ दाद ख़ां सय्याह
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नज़्म
भली सी एक शक्ल थी
न ये कि वो चले तो कहकशाँ सी रहगुज़र लगे
मगर वो साथ हो तो फिर भला भला सफ़र लगे
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
फ़रेब-ए-हुस्न से गब्र-ओ-मुसलमाँ का चलन बिगड़ा
ख़ुदा की याद भूला शैख़ बुत से बरहमन बिगड़ा
हैदर अली आतिश
ग़ज़ल
कैसे भूले हुए हैं गब्र ओ मुसलमाँ दोनों
दैर में बुत है न काबे में ख़ुदा रक्खा है
लाला माधव राम जौहर
मर्सिया
इस रुकन को यूं उम्मत बेदीन गिरा दे
हज तुम ने किया काबे का जब चशम इधर है
मीर मुज़फ़्फ़र हुसैन ज़मीर
ग़ज़ल
ढूँडते फिरते हो अब टूटे हुए दिल में पनाह
दर्द से ख़ाली दिल-ए-गब्र-ओ-मुसलमाँ देख कर
यगाना चंगेज़ी
शेर
कैसे भूले हुए हैं गब्र ओ मुसलमाँ दोनों
दैर में बुत है न काबे में ख़ुदा रक्खा है