aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
परिणाम "گھاؤ"
कुलवंत कौर के दिमाग़ में सिर्फ़ दूसरी औरत थी, “मैं पूछती हूँ, कौन है वो हरामज़ादी?”ईशर सिंह की आँखें धुँदला रही थीं, एक हल्की सी चमक उनमें पैदा हुई और उसने कुलवंत कौर से कहा, “गाली न दे उस भड़वी को।”
ये महताब ये रात की पेशानी का घावऐसा ज़ख़्म तो दिल पर खाया जा सकता है
है जराहत और ज़ख़्म और घाव रीशभैंस को कहते हैं भाई गाव मेश
इस देस के घाव देखे थेथा वेदों पर विश्वाश बहुत
जल उठें रूह के घाव तो छिड़क देता हूँचाँदनी में तिरी यादों की महक हल कर के
तख़्लीक़ी ज़बान तर्सील और बयान की सीधी मंतिक़ के बर-अक्स होती है। इस में कुछ अलामतें है कुछ इस्तिआरे हैं जिन के पीछे वाक़यात, तसव्वुरात और मानी का एक पूरा सिलसिला होता है। सय्याद, नशेमन, क़फ़स जैसी लफ़्ज़ियात इसी क़बील की हैं। शायरी में सय्याद चमन में घात लगा कर बैठने वाला एक शख़्स ही नहीं रह जाता बल्कि उस की किरदारी सिफ़त उस के जैसे तमाम लोग को उस में शरीक कर लेती है। इस तौर पर ऐसी लफ़्ज़ियात का रिश्ता ज़िंदगी की वुसअत से जुड़ जाता है। यहाँ सय्याद पर एक छोटा सा इन्तिख़ाब पढ़िए।
घावگھاؤ
wound, cut
Chandi Ke Ghav
कृष्ण चंदर
नॉवेल / उपन्यास
हासिल घाट
बानो कुदसिया
महिलाओं की रचनाएँ
फुटपाथ की घास
नाटक / ड्रामा
Chandi Ka Ghav
Ek Dil Sau Ghao
कृष्ण गोपाल अाबिद
अफ़साना
Ghas Mein Titliyan
वज़ीर आग़ा
काव्य संग्रह
Baat Me Ghaat
फ़िक्र तौंसवी
गद्य/नस्र
Hari Ghas Aur Surkh Gulab
अख़्तर जमाल
विश्वास घात
जितेन्द्र बिल्लू
Gharelu Dhobi Ghat
ख़्वाजा हसन निज़ामी
उद्योग एवं व्यवसाय
Be Ghat Ki Nau
नूर शाह
Ghat Ka Patthar
गुलशन नन्दा
Ye Ghav Ye Phool
विश्वनाथ दर्द
कहानी
Ghao
नरेंद्र शर्मा
तुम जिसे चाँद कहते हो वो अस्ल मेंआसमाँ के बदन पर कोई घाव है
अपनी बहुओं को इस ख़ूबसूरत आँगन से महरूम कर दिया है, जहाँ वो कल तक सुहाग की रानियाँ बनी बैठी थीं। अपनी अलबेली कुँवारियों को, जो अंगूर की बेल की तरह तेरी छाती से लिपट रही थीं, झिंझोड़ कर अलग कर दिया है। किस लिए आज ये देस बिदेस हो गया है।मैं चलती जा रही थी और डिब्बों में बैठी हुई मख़्लूक़ अपने वतन की सत्ह-ए-मुर्तफ़'अ उसके बुलंद-ओ-बाला चटानों, उसके मर्ग़-ज़ारों, उसकी शादाब वादियों, कुंजों और बाग़ों की तरफ़ यूँ देख रही थी, जैसे हर जाने-पहचाने मंज़र को अपने सीने में छिपा कर ले जाना चाहती हो। जैसे निगाह हर लहज़ा रुक जाए, और मुझे ऐसा मा'लूम हुआ कि इस अ'ज़ीम रंज-ओ-अलम के बारे मेरे क़दम भारी हुए जा रहे हैं और रेल की पटरी मुझे जवाब दिए जा रही है।
रोऊँ कि हँसूँ समझ न आएहाथों में हैं फूल दिल में घाव
कौन गुमाँ यक़ीं बना कौन सा घाव भर गयाजैसे सभी गुज़र गए 'जौन' भी कल गुज़र गया
बड़े सलीक़े से दुनिया ने मेरे दिल को दिएवो घाव जिन में था सच्चाइयों का चरका भी
आँख आईनों की हैरत नहीं जाती अब तकहिज्र का घाव भी उस ने दिया पहले पहले
छुरी का तीर का तलवार का तो घाव भरालगा जो ज़ख़्म ज़बाँ का रहा हमेशा हरा
कटी हुई है ज़मीं कोह से समुंदर तकमिला है घाव ये दरिया को रास्ता दे कर
सब चाँदनी से ख़ुश हैं किसी को ख़बर नहींफाहा है माहताब का गर्दूं के घाव पर
एक ज़रा सी भूल पे हम को इतना तू बदनाम न करहम ने अपने घाव छुपा कर तेरे काज सँवारे हैं
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