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ग़ज़ल
सुन रख ओ ख़ाक में आशिक़ को मिलाने वाले
अर्श-ए-आज़म के ये नाले हैं बुलाने वाले
अब्दुल रहमान एहसान देहलवी
ग़ज़ल
चौंक उठता है ख़ुदा भी आसमानों का ज़वाल
‘अर्श-ए-आ’ज़म को भी अक्सर यूँ हिला देता है कौन
खातिर हाफ़़िज़ी
ग़ज़ल
उस के कानों तक रसाई क्यूँ नहीं हैरान हूँ
अर्श-ए-आज़म तक तो मेरे शब के नाले जाते हैं
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
ख़याल उन का परे है अर्श-ए-आज़म से कहीं साक़ी
ग़रज़ कुछ और धुन में इस घड़ी मय-ख़्वार बैठे हैं
इंशा अल्लाह ख़ान इंशा
ग़ज़ल
अदब से अर्श-ए-आज़म भी झुका देता है सर अपना
हरीम-ए-क़ुद्स में इंसान का जब नाम आता है
शिफ़ा ग्वालियारी
नज़्म
मोहब्बत
मोहब्बत जो बशर के साथ मिटती है न मरती है
मोहब्बत रूह में जो अर्श-ए-आज़म से उतरती है
ऋषि पटियालवी
नज़्म
नया ख़ून
अर्श-ए-आज़म के परे लौह-ओ-क़लम से आगे
कर्बला से ये लहू जाने कहाँ तक पहुँचा