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नज़्म
पीले दिये
कल्परिक्ष और आब आब-ए-कौसर सोचते हो दौर की
शर्म है गर चाह हो उस शहर में भी हूर की
ओम भुतकर मग़्लूब
नज़्म
ये नूर कैसा है
एक हुजूम अपाहिज है आब-ए-कौसर पर
ये कैसा शोर है जो बे-आवाज़ फैला है
मीना कुमारी नाज़
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ग़ज़ल
ये है रिंदों पे रहमत रोज़-ए-महशर ख़ुद मशिय्यत ने
लिखा है आब-ए-कौसर से निखर जाना सँवर जाना
गुलज़ार देहलवी
ग़ज़ल
आब-ए-कौसर तो न था चश्म-ए-सियह में तेरी
पड़ गई जान तुझे देख के दीवाने में
राज्य बहादुर सकसेना औज
ग़ज़ल
न गंगा-जल में ही डूबे न डूबे आब-ए-कौसर में
मगर अश्कों के सागर में सभी दैर-ओ-हरम डूबे