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ग़ज़ल
जिन की जीभ के कुंडल में था नीश-ए-अक़रब का पैवंद
लिक्खा है उन बद-सुखनों की क़ौम पे अज़दर बरसे थे
मजीद अमजद
शेर
तिरे रुख़सारा-ए-सीमीं पे मारा ज़ुल्फ़ ने कुंडल
लिया है अज़दहा नीं छीन यारो माल आशिक़ का
आबरू शाह मुबारक
हास्य
ये तिरी ज़ुल्फ़ का कुंडल तो मुझे मार चला
जिस पे क़ानून भी लागू हो वो हथियार चला
अतहर शाह ख़ान जैदी
नज़्म
दो बूँद पानी
अभी तो ये लोग स्माल-चिकेन्स-ऑफ़-इस्नेक पालती हैं
माथे पर कुंडल डालती हैं