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नज़्म
शाम को रास्ते पर
कैसे जा पहुँचे किसी ख़ल्वत-ए-महजूब के मख़मूर सनम-ख़ाने में
वो सनम-ख़ाना जहाँ बैठे हैं दो बुत ख़ामोश
मीराजी
ग़ज़ल
किस का चमकता चेहरा लाएँ किस सूरज से माँगें धूप
घोर अँधेरा छा जाता है ख़ल्वत-ए-दिल में शाम हुए
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
मज़ा क्या उस बुत-ए-बे-पीर से दिल के लगाने का
जो ख़ल्वत में हो बुत महफ़िल में हो तस्वीर की सूरत
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
मुद्दत में तुम मिले हो क्यूँ ज़िक्र-ए-ग़ैर आए
मैं अपने साए से भी ख़ल्वत में बद-गुमाँ हूँ
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
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नज़्म
जमुना
अब कहाँ वो ख़ल्वत-ए-राज़-ओ-नियाज़-ए-हुस्न-ओ-इश्क़
बे-सदा ज़ेर-ए-ज़मीं हैं आह साज़-ए-हुस्न-ओ-इश्क़
सुरूर जहानाबादी
नज़्म
दिल मिरे सहरा-नवर्द-ए-पीर दिल
ये तमन्नाओं का बे-पायाँ अलाव गर न हो
रेग अपनी ख़ल्वत-ए-बे-नूर-ओ-ख़ुद-बीं में रहे
नून मीम राशिद
ग़ज़ल
है ख़ल्वत-ए-दिल-ए-वीराँ ही मंज़िल-ए-महबूब
ये ख़ल्वत-ए-दिल-ए-वीराँ नहीं तो कुछ भी नहीं