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ग़ज़ल
असअ'द बदायुनी
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ग़ज़ल
चले जब गिरते पड़ते 'सब्र' मय-ख़ाना से हम पी कर
तो बोली दुख़्तर-ए-रज़ होशियार आहिस्ता आहिस्ता
अबुल बक़ा सब्र सहारनपुरी
ग़ज़ल
हटा के ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ वो रुख़ से यूँ बोले
कभी ये शाम-ओ-सहर ही का फ़ासला न गया
अबुल बक़ा सब्र सहारनपुरी
ग़ज़ल
'सब्र' हंगाम-ए-तलब शर्त है निय्यत में ख़ुलूस
जाएगी बाब-ए-इजाबत पे दुआ तीसरे दिन
अबुल बक़ा सब्र सहारनपुरी
ग़ज़ल
आतिश-ए-ग़म ने ये ऐ 'सब्र' मुझे फूँका है
राख में अपनी हुआ हो के मैं पामाल सफ़ेद