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ग़ज़ल
महरम है हबाब-ए-आब-ए-रवाँ सूरज की किरन है उस पे लिपट
जाली की कुर्ती है वो बला गोटे की धनक फिर वैसी ही
बहादुर शाह ज़फ़र
नज़्म
बरसात की बहारें
क्या क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें
कुर्ती गुलाबी जिन में गोटे लगे हुए हैं